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भेड़ाघाट

Friday, May 28, 2010

कंगाली से बचने उपभोक्ताओं पर भार





प्रदेश में पिछले दस सालों से बिजली संकट गहराया हुआ है, लेकिन भाजपा के लिए यह केवल एक राजनीतिक मुद्दा भर है। 2003 के विधानसभा चुनाव में बिजली संकट पर हंगामा करके ही भाजपा ने जीत हासिल की थी। 2008 के चुनाव में भी बिजली संकट के लिए केंद्र को जिम्मेदार बताकर वह अपनी सत्ता बचाने में सफल हो गई। लेकिन, अब बिजली संकट भाजपा के गले की हड्डी बना हुआ है। फिर भी सरकार को इसकी कोई परवाह नहीं है। अब कंगाली की कगार पर खड़े बिजली विभाग ने लगभग 11 फीसदी महंगी बिजली का भार डाल दिया है।
वर्ष 2003 में राज्य में 800 मेगावाट बिजली की कमी थी, जो आज बढ़कर 1200 से 1500 मेगावाट तक हो गई है। बिजली संकट का समाधान ज़्यादा बिजली पैदा करके ही किया जा सकता है, लेकिन सरकार को इससे क्या लेना-देना। पार्टी नेता केवल हो-हल्ला मचाते हैं और समाधान के नाम पर सरकार बिजली खरीद कर चुपके से बेच देती है। एक बात तो साफ है कि बिजली की खरीद-बिक्री के इस काम में करोड़ों रुपये की काली कमाई की गुंजाइश जरूर हो जाती है। गौरतलब है कि पावर बैकिंग के नाम पर सरकार द्वारा बिजली की कमी पूरा करने के लिए दूसरे राज्यों और अन्य स्रोतों से बिजली खरीदना तो समझ में आता है, लेकिन उसी बिजली को बेच देना समझ में नहीं आता। जानकारों के अनुसार, कुछ निजी कंपनियों के माध्यम से बिजली की खरीद-बिक्री नेताओं और आला अफसरों के लिए फायदेमंद होती है, इसीलिए यह कारोबार बदनामी के बावजूद भी जारी है।
भीषण गर्मी और पेयजल संकट के बीच भारी बिजली कटौती का सामना कर रहे लोगों को नियामक आयोग ने 440 वॉल्ट के करंट का झटका दिया है। प्रदेश में तकरीबन दुर्लभ हो चुकी बिजली 1 जून से लगभग 11 फीसदी तक महंगी हो जाएगी।
बिजली इतनी महंगी क्यों हुई के सवाल पर राज्य नियामक आयोग के के.के. गर्ग कहते हैं कि वितरण कंपनियों का 79 प्रतिशत राजस्व जनरेशन, ट्रांसमिशन और अन्य स्रोतों से बिजली खरीदने में जाता है। 15-16 प्रतिशत ऑपरेशन मेंटेनेंस और स्थापना प्रभार है। इस साल जनरेशन और ट्रांसमिशन के टैरिफ में काफी वृद्धि हुई है और कंपनियां अपने कर्मचारियों को छठवां वेतनमान दे रही हैं। ऐसी स्थिति में दरें बढऩा लाजमी है। प्रदेश के इतिहास में तीसरी बार दस प्रतिशत से अधिक बिजली दरें बढ़ाई गई है। इससे पहले वर्ष-2001-02 में 14.73 प्रतिशत और 2004-05 में 14.47 प्रतिशत दर बढ़ी थी। इसके बाद से 2006-07 में करीब पांच प्रतिशत दर बढ़ाई गई थी। वहीं पिछले साल 2009-10 में 3.61 प्रतिशत दर बढ़ोत्तरी की गई। इसके अलावा 2007-08 में मात्र एक प्रतिशत और 2008-09 में तीन प्रतिशत दर बढ़ोत्तरी की गई थी। लेकिन बीते पांच सालों से दर बढ़ोत्तरी पांच प्रतिशत के अंदर सिमटी रही। अब 10.66 प्रतिशत दर बढऩे से आम आदमी के साथ सरकार भी चिंता में है। कीमत के लिहाज से देखे, तो इस साल उपभोक्ता प्रदेश के इतिहास की सबसे महंगी बिजली लेगा।
आयोग सदस्य (इंजीनियरिंग) केके गर्ग भी स्वीकारते हैं कि पिछले चार-पांच साल में यह सबसे अधिक बढ़ोत्तरी है। उनका कहना है कि इस बढ़ोत्तरी के अलावा कोई चारा नहीं था। दरअसल, इस साल महाराष्ट्र, दिल्ली और उत्तरप्रदेश की बिजली से मध्यप्रदेश की तुलना करना भी उपभोक्ताओं को भारी पड़ गया है। इन राज्यों की औसत लागत के अध्ययन के बाद हीं मध्यप्रदेश में बिजली लागत तय की गई। इन राज्यों में कही भी चार रुपए से कम औसत लागत नहीं है। ऐसे में मप्र में बिजली की लागत पिछले साल की 3 रुपए 71 पैसे प्रति यूनिट से बढ़ाकर 4 रुपए 22 पैसे आंकी गई है। उस पर ट्रांसमिशन सहित अन्य खर्चों को पाटने के लिए उपभोक्ताओं की जेब खाली करना तय कर लिया गया। नतीजा यह कि उपभोक्ताओं पर एक हजार नौ करोड़ का अतिरिक्त बोझ डाल दिया गया।
राज्य सरकार ने अपनी विद्युत उत्पादन क्षमता में वृद्धि के लिए कोई गंभीर प्रयास नहीं किए। वर्तमान में राज्य की कुल उपलब्ध विद्युत क्षमता 9878.25 मेगावाट है। इसमें केंद्रीय कोटे एवं संयुक्त उपक्रम जल विद्युत परियोजनाओं से मिलने वाली बिजली और उद्योगों के निजी केप्टिव उत्पादन की विद्युत क्षमता भी शामिल है। राज्य सरकार ने अपने स्रोतों से केवल 210 मेगावाट की एक ताप बिजली परियोजना पिछले वर्ष पूरी की है, जबकि चालू वित्तीय वर्ष के लिए सरकार ने किसी भी नई परियोजना को शुरू या पूरा करने की कोई योजना नहीं बनाई है। पूरा दारोमदार केंद्र और अन्य क्षेत्रों से प्राप्त होने वाली बिजली पर है, लेकिन इससे बिजली संकट दूर होने वाला नहीं है। बिजली के क्षेत्र में निवेश के लिए सरकार ने कई निवेशकों और निजी विद्युत कंपनियों को आकर्षित करने के उपाय किए, लेकिन शासन-प्रशासन के हठी और भ्रष्ट रवैये से तंग आकर निवेशक जल्दी ही भाग खड़े हुए। इससे राज्य में 26000 मेगावाट बिजली उत्पादन का सपना भी भंग हो गया। भारत सरकार ने कोयला भंडारों की सीमित क्षमता और जल भंडारों पर बढ़ते दबाव को ध्यान में रखते हुए गैर परंपरागत ऊर्जा क्षेत्र को बढ़ावा देने की योजना पर काम शुरू किया है। तमिलनाडु, गुजरात, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक एवं राजस्थान आदि राज्यों ने अपने यहां गैैर परंपरागत ऊर्जा स्रोतों से बिजली पैदा करने के लिए पिछले तीन वर्षों में सराहनीय प्रयास किए हैं, लेकिन मध्य प्रदेश अभी भी फिसड्डी बना हुआ है।
सरकारी सूत्रों के मुताबिक, राज्य में गैैर परंपरागत ऊर्जा स्रोतों से 212.800 मेगावाट बिजली पैदा किए जाने की क्षमता है, लेकिन वर्तमान में इसका केवल 18 फीसदी ही उपयोग हो रहा है। गैर परंपरागत ऊर्जा कार्यक्रमों को बढ़ावा दिया जाना शिवराज सिंह सरकार की प्राथमिकता में नहीं है, इसलिए राज्य को केंद्र सरकार की योजनाओं का लाभ नहीं मिल पा रहा है। प्रदेश के चार महानगरों को सोलर सिटी के रूप में स्थापित करने का काम तो आज तक शुरू नहीं हो पाया, जबकि यह काम 2009 में पूरा हो जाना चाहिए था। भोपाल नगर निगम ने हाल में ही इस आशय का प्रस्ताव मध्य प्रदेश ऊर्जा विकास निगम को भेजा है, जबकि केंद्र सरकार बहुत पहले इसकी परियोजना रिपोर्ट तैयार करने के लिए 50 लाख रुपये की राशि स्वीकृत कर चुकी है। इतना ही नहीं, भारत सरकार एवं नवीनीकरण ऊर्जा मंत्रालय की माइग्रेशन योजना के तहत राज्य में अब तक एक भी सोलर प्रोजेक्ट नहीं लग सका है। मंत्रालय की ओर से इस योजना के लिए राज्य को भारी अनुदान मिलने की संभावना है। केंद्रीय विद्युत नियामक आयोग ने भी केंद्र की सोलर परियोजनाओं को बढ़ावा देने के लिए 18.44 रुपये प्रति यूनिट की दर से बिजली खरीदने का प्रस्ताव पारित कर दिया है। बावजूद इसके ऐसे मामले जब राज्य सरकार के पास आते हैं तो अटक कर रह जाते हैं।

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