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भेड़ाघाट

Saturday, June 4, 2011

क्या पुलिस में एसोसिएशन की जरूरत है ?

विनोद उपाध्याय

खाकी वर्दी का रौब हम सभी ने देखा है और कभी-कभी शायद झेला भी है मगर उसे पहनने से उपजी कुंठा और कांटेदार पीड़ा के बारे में हम कुछ नहीं जानते। खाकी वर्दी पहनने वाला दूर से भले ही कितना रौब दार दिखे लेकिन उसकी हालत इतनी दयनीय होती है कि उसे सबसे अधिक हमदर्दी की जरूरत है। यह किसी एक राज्य की पुलिस की व्यथा नहीं है बल्कि सभी राज्यों में एक जैसी स्थिति है। हां उन राज्यों में पुलिस की स्थिति थोड़ी बेहतर है जहां पुलिस का एसोसिएशन है। अगर हम मध्य प्रदेश की बात करे तो यहां के पुलिस जवान उन अभागों में से हैं जिनका कोई माई-बाप नहीं होता।
इस राज्य की विसंगति यह है कि यहां के लगभग सभी शासकीय और अशासकीय विभागों में एक जुटता के लिये कर्मचारी संगठन काम कर रहे हैं लेकिन पुलिस विभाग ही एक ऐसा विभाग है जिसका कोई संगठन नहीं हैं या यूं भी कह सकते हैं कि प्रदेश में पुलिस बल संगठित नहीं है। संगठन के अभाव में पुलिस के जवानों का शोषण होना आम बात हो गई है। वहीं यहां के आईएएस और आईपीएस ऑफिसर्स एसोसिएशन में इतना दम है कि वह सरकार को जब चाहे चक्करघिन्नी बना देता है।
वैसे तो पुलिस विभाग से जुड़ी कई ऐसी समस्याएं हैं जो अंदर-अंदर इस विभाग की कार्यप्रणाली और इसके प्रदर्शन को गहरेखाने प्रभावित करती हैं पर एक समस्या ऐसी भी है जिसे लेकर पुलिस के कर्मचारी काफी हद तक अंदरूनी चर्चाएं करते रहते हैं। यह समस्या है पुलिस एसोशिएशन की। जैसा कि हम सभी जानते हैं, हमारे देश में हर व्यक्ति को समूह बनाने का मौलिक अधिकार प्रदान किया गया है जो संविधान के अनुच्छेद 19 (ग) में प्रदत्त है लेकिन इसके साथ कतिपय सीमायें भी निर्धारित कर दी गयी हैं जो देश की एकता तथा अखंडता, लोक व्यवस्था तथा सदाचार जैसे कारणों के आधार पर नियत की जाती हैं। यह तो हुई एक आम आदमी के विषय में नियम पर सैन्य बलों के लिए और शान्ति-व्यवस्था के कार्यों में लगे पुलिस बलों के लिए संविधान के ही अनुच्छेद 33 के अनुसार एसोशिएशन बनाने के विषय में कई सारी सीमायें निर्धारित कर दी गयी हैं तथा यह बताया गया है कि इस सम्बन्ध में उचित कानून बना कर समूह को नियंत्रित करने का अधिकार देश की संसद को है। ऐसा इन दोनों बलों की विशिष्ठ स्थिति और कार्यों की आवश्यकता के अनुसार किया गया।
पुलिस बलों के लिए बाद में भारतीय संसद द्वारा पुलिस फोर्सेस (रेस्ट्रिक्शन ऑफ राइट्स) एक्ट 1966 बनाया गया। इस अधिनियम के अनुसार पुलिस बल वह बल है जो किसी भी प्रकार से लोक व्यवस्था के कार्यों से जुड़ा रहता है। इसकी धारा तीन के अनुसार पुलिस बल का कोई भी सदस्य बगैर केंद्र सरकार (या राज्य सरकार) की अनुमति के किसी ट्रेड यूनियन, लेबर यूनियन आदि का सदस्य नहीं बन सकता है। अब कई राज्यों में राज्य सरकारों ने इस प्रकार की अनुमति दे दी है पर कई ऐसे भी राज्य हैं जहां अभी इस प्रकार के समूहों को मान्यता नहीं मिली है। इसी प्रकार एक बहुत ही पुराना कानून है पुलिस(इनसाईटमेंट टू डिसअफेक्शन) एक्ट 1922। इसकी धारा तीन में जान-बूझ कर पुलिस बल में असंतोष फैलाने, अनुशासनहीनता फैलाने आदि को दंडनीय अपराध निर्धारित किया गया है। लेकिन साथ ही में अधिनियम की धारा चार के अनुसार पुलिस बल के कल्याणार्थ अथवा उनकी भलाई के लिए उठाये गए कदम, जो किसी ऐसे एसोशिएशन द्वारा किये गए हों, जिन्हें केन्द्र अथवा राज्य सरकार द्वारा मान्यता मिल गयी हो, किसी प्रकार से अपराध नहीं माने जाते।
बहुत सारे प्रदेशों में प्रदेश सरकारों ने इस प्रकार के पुलिस एसोसिएशन को बकायदा मान्यता देकर कानूनी जामा पहना दिया है। बिहार, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, केरल और अब उतर प्रदेश जैसे कई राज्यों में ये पुलिस एसोसिएशन काम कर रहे हैं। इनके विपरीत मध्य प्रदेश पुलिस में पुलिस एसोसिएशन अब तक नहीं रहा है। उत्तर प्रदेश में पुलिस यूनियन के संस्थापक बृजेन्द्र सिंह यादव कहते हैं कि हमने कल्याण संस्थान नामक यह अराजपत्रित पुलिस एसोसिएशन बनाया है जो पुलिसकर्मियों व उनके बच्चों के कल्याण के काम करेगी और उनकी समस्याओं को उचित मंच पर उठाकर संघर्ष करेगी। जहां तक काम की बात है तो मुझे नहीं लगता कि अगर सरकार पुलिसकर्मियों को सारी सुविधाएं मुहैया कराए तो वे अपने कर्तव्य के प्रति कोताही बरतेगें। वे आगे कहते हैं कि पुलिस एसोसिएशन से पुलिस के अधिकारियों और जवानों को आत्मबल मिलता है। जिससे वे अपना कर्तव्य ईमानदारी से निभाते हैं। वे मप्र की पुलिस को भी सलाह देते हैं कि वे भी अपना एसोसिएशन बनाए। वे कहते हैं कि जिस तरह इन दिनों देश में अपराधों का ग्राफ बढ़ रहा है और इसका राजनीतिकरण हो रहा है अगर ऐसे में पुलिस को निष्पक्ष जांच करनी है तो एसोसिएशन जरूरी है।
मप्र के एक छोटे से जिले के एक थाने के इंस्पेक्टर रामश्ंकर कुशवाह (बदला हुआ नाम) हाल ही में काफी परेशान थे। मामला एक बच्चे की हत्या का था। वैसे तो हत्या, लूट, डकैती आदि जैसे मामलों से पुलिसवालों को आए दिन ही दो-चार होना पड़ता है। लेकिन सिंह इसलिए मुश्किल में थे कि मामले ने राजनीतिक रंग ले लिया था और जिस अपराधी पर हत्या का आरोप था वह राजस्थान भाग गया था। वे बताते हैं, नेताओं का दबाव एसपी पर पड़ा तो मुझे चेतावनी मिली कि एक सप्ताह में हत्यारे को पकड़ो या सस्पेंड होने के लिए तैयार रहो। कुर्सी बचानी थी लिहाजा राजस्थान में कुछ लोगों से संपर्क कर अपराधी को मप्र की सीमा तक लाने की व्यवस्था करवाई जिसमें करीब 70 हजार रुपए लग गए। इस काम में विभाग की ओर से एक पैसे की भी मदद नहीं मिली, पूरा पैसा मैंने खर्च किया। जो रुपया घर से खर्च किया है उसे किसी न किसी तरह नौकरी से ही पूरा करना होगा। ऐसे में हमसे ईमानदारी की उम्मीद बेमानी ही होगी।
वे बताते हैं कि सब इंस्पेक्टर को गश्त के लिए मात्र 350 रुपये महीना ही मिलता है। जिससे सिर्फ सात लीटर तेल ही आ सकता है। जबकि वह प्रतिदिन गश्त में कम से कम दो-तीन लीटर तेल खर्च करता है इससे आगे सिंह की आवाज का लहजा धीमा और तल्ख हो जाता है। वे कहते हैं, इन्ही वजहों से आम आदमी की नजर में हमारे विभाग के कर्मचारी सबसे भ्रष्ट हैं। लेकिन आप ही बताएं कि हम इधर-उधर हाथ न मारें तो पूरा वेतन सरकारी कामों में ही खर्च हो जाएगा और बच्चे भीख मांगने को मजबूर होंगे। यह पुलिस का वह चेहरा है जिसकी तरफ आम निगाह अमूमन नहीं जाती। दरअसल पुलिस शब्द जिन सुर्खियों में होता है उनके विस्तार में जाने पर भ्रष्टाचार, उत्पीडऩ, ज्यादती, धौंस, शोषण आदि जैसे शब्द ही पढऩे को मिलते हैं। लेकिन पुलिस के पाले में खड़े होकर देखा जाए तो पता चलता है कि कुछ और पहलू भी हैं जिनकी उतनी चर्चा नहीं होती जितनी होनी चाहिए, ऐसे पहलू जो बताते हैं कि वर्दी को सिर्फ आलोचना की ही नहीं, कई अन्य चीजों के साथ हमारी हमदर्दी की भी जरूरत है।
इनमें पहली जरूरत है संसाधनों की। जैसा कि इंदौर में तैनात रहे एक थानेदार नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं, 'हमारे यहां से एक बच्चे का अपहरण हो गया। सर्विलांस से पता चला कि अपहरणकर्ता बच्चे को राजस्थान लेकर गए हैं। बदमाशों का पता लगाने के लिए कई टीमों को लगाया गया। सभी टीमें निजी वाहनों से राजस्थान के शहरों की खाक छानती रहीं। सफलता भी मिली। लेकिन पूरे ऑपरेशन में 50 हजार से ऊपर का खर्च हुआ। गाडिय़ों में डीजल डलवाने से लेकर टीम के खाने-पीने तक का जिम्मा थाने के मत्थे रहा। इसमें कुछ दरोगाओं ने भी अपने पास से सहयोग किया। आप ही बताइए, जिस पुलिस विभाग के कंधों पर सरकार ने गांव से लेकर शहर तक शांति, अपराध रोकने और लोगों के जानमाल की सुरक्षा का जिम्मा दे रखा है उसे क्यों इतना भी बजट और अन्य संसाधन नहीं दिए जाते कि वह किसी अपराधी को पकडऩे के लिए बाहर जा सके?
यह अकेला उदाहरण नहीं। भोपाल के एक थाने में पदस्थ एक सब इंस्पेक्टर के मुताबिक संसाधनों से जुड़ी दिक्कतें कई मोर्चों पर हैं। वे कहते हैं, 'यदि कोई दरोगा या सिपाही किसी मुल्जिम को पकड़कर थाने लाता है तो मुल्जिम की खुराक का जिम्मा थाने का होता है। पूछताछ के बाद 24 घंटे में उसे न्यायालय में पेश करना होता है। 24 घंटे यदि मुल्जिम को थाने में रखा गया तो दो बार खाना तो खिलाना ही पड़ेगा। इसमें एक मुल्जिम पर कम से कम 40-50 रुपये खर्च हो जाते हैं। जबकि सरकार की ओर से हवालात में बंद होने वाले मुल्जिम की एक समय की खुराक पांच रुपये ही निर्धारित है। ऐसे में पुलिसकर्मी या तो अपनी जेब से 30-35 रुपये एक मुल्जिम पर खर्च करें या थाने के आसपास के किसी ढाबेवाले पर रौब गालिब कर फ्री में खाना मंगवा कर मुल्जिम को खिलाएं। पुलिस यदि फ्री में खाना मंगवाती है तो कहा जाता है कि वह वसूली कर रही है। लेकिन अपने पास से खाना खिलाएंगे तो कितना वेतन घर जा पाएगा?
विभाग का जो कर्मचारी (सिपाही) सबसे अधिक भागदौड़ करता है उसे ईंधन के लिए एक रुपया भी नहीं मिलता। जैसा कि पांडे कहते हैं, सिपाही को आज भी साइकिल एलाउंस ही मिलता है। यह हास्यास्पद है कि अपराधी एक ओर हवा से बातें करने वाली तेज रफ्तार गाडिय़ों का इस्तेमाल कर रहे हैं और दूसरी ओर अधिकारी व सरकार इस बात की उम्मीद करते हैं कि सिपाही साइकिल से दौड़ कर हाइटेक अपराधियों को पकड़े।
नाम न छापने की शर्त पर पुलिस के एक कांस्टेबल बताते हैं कि अधिकारियों से लेकर दरोगा तक का दबाव होता है कि सिपाही भी गुडवर्क लाकर दे। वे कहते हैं, गुडवर्क के लिए गली-मोहल्लों की खाक छाननी पड़ती है जो साइकिल से संभव नहीं है। थाने में तैनात एक सिपाही भी गश्त के दौरान करीब 45 लीटर तेल महीने में खर्च कर देता है, जबकि उसे मिलता एक धेला भी नहीं। थानों में तैनात कुछ सरकारी मोटरसाइकलों को ही महीने में विभाग की ओर से तेल मिलता है। लेकिन इनसे केवल 8-10 सिपाही ही गश्त कर सकते हैं, शेष को अपने साधन से ही गश्त पर निकलना पड़ता है। ऐसे में नौकरी करनी है तो जेब से तेल भरवाना मजबूरी है। इसके अलावा पुलिस विभाग का सूचना-तंत्र काफी हद तक स्थानीय मुखबिरों पर ही निर्भर होता था। लेकिन चूंकि मुखबिरों को देने के लिए विभाग के पास अपना कोई फंड नहीं होता इसलिए अच्छे मुखबिर मिलना अब मुश्किल होता है। वही व्यक्ति अब पुलिस को सूचना देने में रुचि रखता है जिसका अपना कोई स्वार्थ हो।
पिछले वर्ष पुलिस विभाग से रिटायर हुए इंस्पेक्टर नरसिंह पाल बताते हैं, 'कोई भी भ्रष्टाचार का आरोप बड़ी आसानी से लगा देता है, लेकिन भ्रष्टाचार के पीछे कारण क्या है, इसे जानने की कोशिश न तो अधिकारियों ने कभी की और न ही किसी सरकार ने। चाहे जिसका शासन हो, सबकी मंशा यही होती है कि अधिक से अधिक अपराधियों के खिलाफ कठोर कार्रवाई हो। ठीकठाक अपराधियों पर एनएसए लगाने के लिए अधिकारियों का दबाव भी होता है। एक एनएसए लगाने में थानेदार का करीब तीन चार हजार रुपये खर्च हो जाता है। इस खर्च में 100-150 पेज की कंप्यूटर टाइपिंग, उसकी फोटो कॉपी, कोर्ट अप्रूवल और डीएम के यहां की संस्तुति तक शामिल होती है। पुलिस विभाग तक की फाइल जब सरकारी कार्यालयों में जाती है तो बिना खर्चा-पानी दिए काम नहीं होता। यह खर्च भी थानेदार को अपनी जेब से देना पड़ता है।Ó
एक डीआईजी कहते हैं, विभाग में हर कदम पर कमियां हैं। योजनाओं को ही लीजिए। सरकार योजना शुरू तो कर देती है लेकिन उसे चलाने के लिए भविष्य में धन की व्यवस्था कहां से होगी इस बारे में नहीं सोचती। उक्त डीआईजी एक उदाहरण देते हुए बताते हैं कि सरकार की ओर से प्रदेश भर के थानों को कंप्यूटराइज्ड कराने के लिए बड़ी तेजी से काम हुआ। जिन थानों में ठीक-ठाक कमरों की व्यवस्था तक नहीं थी उन जगहों पर थाना प्रभारी ने अधिकारियों के दबाव में किसी तरह व्यवस्था कर कंप्यूटर लगवाने के लिए कमरे दुरुस्त कराए। लेकिन कंप्यूटरों के रखरखाव के लिए कोई बजट नहीं मिला। मतलब साफ है, यदि कंप्यूटर में कोई खराबी आती है तो थानेदार या मुंशी अपनी जेब से उसे सही करा कर सरकारी काम करें। उक्त डीआईजी कहते हैं, सूचना क्रांति का दौर है, हर अधिकारी चाहता है कि उसके क्षेत्र में कोई भी घटना हो, सिपाही या दारोगा उसे तत्काल मोबाइल से अवगत कराएं। लेकिन समस्या यह है कि पुलिस कर्मियों को मोबाइल का बिल अदा करने के लिए एक रुपया भी नहीं मिलता। थानों में स्टेशनरी का बजट इतना कम होता है कि यदि कोई लिखित शिकायत थाने में देना चाहता है तो मजबूरी में मुंशी पीडि़त से ही कागज मंगवाता है और उसी से फोटोस्टेट भी करवाता है। कभी-कभी मुंशी यह सुविधाएं अपने पास से शिकायती को दे देते हैं तो सुविधा शुल्क वसूल करते हैं। ऐसे में आम आदमी के दिमाग में पुलिस के प्रति गलत सोच पनपना लाजिमी है।
यह तो हुई उन खर्चों की बात जिनके लिए पैसा ही नहीं मिलता। लेकिन जो पैसा पुलिसकर्मियों को अपनी सेवाओं के लिए मिलता है उसकी भी तुलना दूसरे क्षेत्रों से करने पर साफ नजर आ जाता है कि स्थिति कितनी गंभीर है। काम ज्यादा, वेतन कम और ऊपर से छुट्टियों का टोटा। ऐसे में कर्मचारियों में तनाव व कुंठा आना स्वाभाविक है। लेकिन उनकी शिकायतों की कहीं सुनवाई नहीं।
'जब एडीजी, आईजी और डीआईजी रैंक के अधिकारी अपने राजनीतिक आकाओं की जीहुजूरी करते दिखें तो एसआई और इंस्पेक्टर रैंक के कर्मचारियों को लगता है कि खुद को बचाना है तो सत्ताधारी पार्टी के स्थानीय एमएलए या एमपी के साथ रिश्ते बनाकर रखे जाएं। और यही असुरक्षा उन्हें अपने स्थानीय संरक्षकों के हित में काम करने के लिए मजबूर करती है।Ó एक थाने में तैनात कांस्टेबल माखन सिंह कहते हैं, 'एक पॉश कालोनी में गश्त करते हुए मैंने देखा कि चार लड़के एक कार में बैठे शराब पी रहे थे। मैंने उन्हें मना किया तो उनमें से एक कार से उतरा और उसने मुझे तीन-चार झापड़ रसीद कर दिए। मैंने पुलिस स्टेशन फोन कर और फोर्स भेजने को कहा। लेकिन कार्रवाई करने की बजाय एसओ ने मुझसे कहा कि वे उन लड़कों को जानते हैं और मैं भविष्य में सावधानी बरतूं। मैं उसी दिन मर गया था। आत्महत्या इसलिए नहीं की क्योंकि 12 साल की एक बेटी है। अब तो मेरे सामने बुरे से बुरा भी हो जाए तो कोई फर्क नहीं पड़ता। मैं किसी रोबोट जैसा हो गया हूं जो तभी कुछ करता है जब अधिकारी करने को कहे।
सजा देने, डर बिठाने और इस तरह पुलिस को अपने इशारों पर नचाने के लिए ऐसे तबादलों का किस खूबी से इस्तेमाल होता है यह आंकड़ों पर नजर डालने से भी साफ हो जाता है।
एक पुलिसकर्मी की समस्याएं रिटायर होने के बाद भी कम नहीं होती। नौकरी के दौरान जिन जिन जगहों पर दरोगा की तैनाती रही है यदि वहां के न्यायालय में उसके द्वारा दाखिल की गई चार्जशीट या गवाही से संबंधित कोई मामला चल रहा हो तो उसे वहां जाना पड़ता है। इस काम के लिए उसे महज 15 रुपये ही खाने का सरकारी खर्च मिलता है। वह भी तब जब न्यायालय में तय तारीख पर गवाही हो जाए। कई बार गवाही किन्हीं कारणों से नहीं हो पाती। ऐसे में खाने का खर्च रिटायर पुलिसकर्मी को अपने पास से उठाना पड़ता है। यदि दारोगा न्यायालय में गवाही के लिए उपस्थित नहीं हो पाता तो उसके खिलाफ वारंट जारी हो जाता है। ऐसे में नौकरी के दौरान ये खर्चे नहीं खलते, लेकिन रिटायरमेंट के बाद यह खासा मुश्किल होता है।
प्रदेश के एक पूर्व डीजीपी का आरोप है कि पूरा विभाग ही गैर योजनाबद्ध तरीके से चलता आ रहा है। वे खुलकर कहते हैं, हर सरकार चाहती है कि क्राइम का ग्राफ उसके शासन में कम रहे। इसका फायदा पुलिस विभाग बखूबी उठाता है। अब सीएम का फरमान है कि क्राइम 15 परसेंट कम हो। आप बताइए उनके पास ऐसा करने के लिए कोई जादू की छड़ी तो है नहीं। इसलिए वे अपने तरीके निकालते हैं। मसलन पीडि़त की रिपोर्ट ही नहीं दर्ज की जाती। इससे पुलिसकर्मियों को दोहरी राहत मिलती है। एक तो क्राइम का ग्राफ नहीं बढ़ता, दूसरा रिपोर्ट दर्ज होने के बाद होने वाली भागदौड़ से भी राहत मिलती है। क्योंकि भागदौड़ में हजारों रु खर्च होते हैं, जिसके लिए थानों के पास कोई बजट नहीं होता।
प्रदेश के होमगार्डस पुलिस के लिए काम कर रहे मो. रईस खान कहते हैं कि हम सभी जानते हैं एकता में बल होता है। जब एक व्यक्ति अकेला होता है तो अपने आप को असहाय महसूस करता है पर जब उसके साथ लोग जुट जाते हैं तो उसमें एक प्रकार की नैतिक और मानसिक ताकत आ जाती है। बिल्कुल इन्हीं उद्देश्यों को लेकर कार्ल माक्र्स ने दुनियाभर के मजदूर इकट्ठा हो जाओ का नारा दिया था। समय बदल गया है कि आज के समय निम्न वर्गों के साथ वह भेदभाव नहीं है जो माक्र्स के जमाने में रहा होगा। समाज में असमानता में भारी कमी आई है। लेकिन यह कहना भी गलत ही होगा कि पूरी तरह समाज में समरूपता आ चुकी है। पुलिस विभाग भी इससे अछूता नहीं है। कई ऐसे लोग हैं जिनका यह मानना है कि इस विभाग में ऊपर और नीचे तबके के अधिकारियों में आज भी बड़ी खाई है जो स्वतंत्रता के इतने दिनों बाद जस की तस बनी हुई है। ऐसे लोगों का स्वाभाविक तौर पर रुझान अधीनस्थ कर्मचारियों के लिए एसोसिएशन होने की तरफ रहता है। इसके विपरीत दूसरा मत यह भी है कि यदि इस प्रकार के एसोसिएशन बने तो उनका भारी खामियाजा पुलिस विभाग को उठाना पड़ेगा। इसमें अनुशासनहीनता से लेकर विद्रोही तेवर और भारी विद्रोह की संभावना तक सम्मिलित हैं। अब इन दोनों में से कौन सा विचार सही है और कौन सा गलत, इसे कह पाना उतना आसान भी नहीं है। दोनों पक्षों के लोगों के पास अपनी बात कहने के पर्याप्त तर्क हैं। मैं इस संबंध में इतना ही कहूंगा कि पुलिस विभाग के निचले स्तरों पर समस्यायें वास्तविक तौर पर हैं और पुलिस की कार्यप्रणाली में सुधार के लिए नितांत आवश्यक है कि इन सभी समस्याओं पर हम गंभीरता से सोचें। लेकिन इसके साथ ही हमें यह भी नहीं भूलना होगा कि पुलिस विभाग अन्य तमाम विभागों में पूर्णतया अलग है और इसमें किसी भी प्रकार की अनुशासनहीनता बर्दाश्त नहीं की जा सकती।
ऐसे में पुलिस एसोसिएशन हो या अन्य कोई भी प्रयास, उसे इन मापदंडों पर पूरी तरह खरा उतरना होगा तभी उनकी उपस्थिति स्वागत योग्य होगी। हाँ यह अवश्य है कि यदि वे संस्थाएं शुद्ध अन्त:करण से पुलिस बल की समस्याओं के निराकरण की दिशा में काम करेंगी, जिससे पुलिस समर्पण की भावना विकसित हो तो किसी को भी उनकी उपस्थिति से गुरेज नहीं होगा।
उधर एक जिले में पुलिस अधिक्षक के पद पर पदस्थ एक अधिकारी कहते हैं कि आईएएस-आईपीएस लॉबी के कारण अरसे से भावनाएं दबाये मध्य प्रदेश पुलिस के जवानों का भी यूनियन होना चाहिए। उधर कुछ पुलिसकर्मियों का भी कहना है कि मप्र में आईपीएस अफसरों की एसोसिएशन चल रही है तो छोटे कर्मचारियों को इस अधिकार से क्यों महरूम किया जा रहा है? बताते चले कि यूपी के अलावा देश के 17 राज्यो में ंंपुलिस की एसोशियेशन पहले से ही पुलिस जनो के हितों मे ंकाम कर रही है।

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