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भेड़ाघाट

Thursday, July 9, 2015

करोड़ों की सब्सिडी लेकर भागीं बाहरी कंपनियां

अब उद्योगपतियों से जमीन छिनेगी मप्र सरकार
27 हजार हेक्टेयर जमीन सरकार के निशाने पर
2016 में होने वाली ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट से पहले अधिगृहित होंगे भू-खंड
vinod upadhyay
भोपाल। पिछले एक दशक में मप्र सरकार ने उद्योगों ने नाम पर बिना जांचे-परखे हजारों हेक्टेयर जमीन उद्योगपतियों को कौडिय़ों के भाव बांट दी। लेकिन इन जमीनों पर उद्योग लगाने की बजाय उन पर दूसरे कारोबार चल रहे हैं या फिर खाली पड़े हैं। प्रदेश के औद्योगिक क्षेत्रों में ऐसी करीब 27 हजार हेक्टेयर जमीन पर प्रदेश सरकार की नजर है। बताया जाता है कि इन जमीनों को लेने वाली करीब आधा सैकड़ा से ज्यादा कंपनियां अरबों रूपए की सब्सिडी डकार भाग गई हैं। आलम यह है कि प्रदेश में अब यह स्थिति है कि नई इंडस्ट्री डालने के लिए अनुकूल जगह नहीं मिल पा रही हैं और इन कंपनियों ने हजारों एकड़ से ज्यादा जमीन पर अभी भी कब्जा कर रखा है। केंद्रीय एमएसएमई मंत्रालय के अनुसार, मप्र में औद्योगिक पार्क, इंडस्ट्रियल एरिया और स्पेशल इकॉनोमिक जोन में करीब 7,000 से अधिक औद्योगिक भूखंड खाली पड़े हैं। देर से ही सही अब मप्र सरकार का उद्योग विभाग जल्द ही एक सर्वे शुरू कर रहा है। इसमें ऐसे उद्योगपति चिन्हित किए जाएंगे, जिन्होंने तीन साल पहले जमीन ली है, और अब तक उद्योग स्थापित नहीं किया है। ऐसे उद्योगपतियों की लिस्ट बनाने के निर्देश आयुक्त वीएल कांताराव ने दिए है। उसके बाद उक्त जमीन को अधिगृहित करने की कार्रवाई की जाएगी। दरअसल, प्रदेश सरकार ने 2016 में होने वाली ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट (जीआईएस) की तैयारियां अभी से शुरू कर दी है। अभी हालही में हुर्ई जीएम-जेडी की बैठक में उद्योग एवं वाणिज्य मंत्री यशोधरा राजे सिंधिया ने अफसरों से कहा है कि नई जमीन तलाशने के काम में तेजी लाएं। साथ ही उद्योग नहीं लगाने वाले उद्योगपतियों के प्लॉट कैंसिल करें। अगले साल इंदौर में होने वाली जीआईएस के लिए अभी से लैंडबैंक बनाने पर काम किया जा रहा है। प्रदेश सरकार की मंशा है कि 2016 में होने वाली ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट (जीआईएस)से पहले खाली औद्योगिक भू-खंड वापस लिया जाए , ताकि समिट के दौरान ही उद्योग लगाने के इच्छुक उद्योगपतियों को भू-खंड उपलब्ध कराया जा सके। इसके लिए प्रदेश सरकार के साथ उद्योगपतियों के साथ किए गए कुल 327 एमओयू में से करीब 33 निरस्त हुए हैं। इससे प्रदेश से करीब 13 हजार 966 करोड़ रुपए का निवेश छिन गया है। निरस्त होने वाले एमओयू में सबसे ज्यादा निवेश छोटे जिलों में होना था। इनमें से कुछ चंबल संभाग के हैं तो ज्यादातर महाकौशल, विन्ध्य के हैं, जबकि निरस्त होने वाले एमओयू में इंदौर क्षेत्र के उद्योग काफी कम हैं। उल्लेखनीय है कि प्रदेश में सरकार ने औद्योगिककरण के नाम पर वर्ष 2007 से 2011 के बीच 40 उद्योगपतियों को 71 हजार एकड़ से ज्यादा सरकारी जमीन बांटकर उपकृत किया था। यह जमीन औद्योगीकरण के साथ-साथ गैर वन पड़त भूमि के विकास के बहाने भी दी गई है। अद्योसंरचना विकास और औद्योगिकीकरण के नाम पर हुए इस जमीन आवंटन से सरकार के खजाने में चंद रुपयों से ज्यादा कुछ जमा नहीं हो पाया है। लंबी अवधि की लीज पर सिफ एक रूपए के न्यूनतम लीजरेंट पर जमीनों का आवंटन भी हुआ। लेकिन सरकार से जमीन लेने के बाद भी अधिकांश उद्योगपति उद्योग नहीं लगा पाए। उसके बाद भी जमीनों की बंदरबांट चलती रही। आज स्थिति यह है कि प्रदेश में उद्योग लगाने के लिए सरकार के पास जमीन नहीं बची है। इसलिए उद्योग विभाग अब खाली पड़े औद्योगिक भूखंडों की पड़ताल करने जा रहा है। ताकि उन्हें अधिगृहित कर उद्योग लगाने के लिए दूसरे उद्योगपतियों को दिया जा सके।
ग्वालियर-चंबल में 500 एकड़ से ज्यादा जमीन पर कंपनियों का कब्जा
प्रदेश सरकार ग्वालियर-चंबल अंचल को एक बड़े औद्योगिक क्षेत्र के रूप मं विकसित करने की योजना पर कार्य कर रही है। लेकिन आलम यह है कि ग्वालियर-चंबल अंचल के औद्योगिक क्षेत्रों से तीन दर्जन से ज्यादा कंपनियां करोड़ों की सब्सिडी डकार भाग गई हैं। नई इंडस्ट्री डालने के लिए अनुकूल जगह नहीं मिल पा रही हैं और इन कंपनियों ने 500 एकड़ से ज्यादा जमीन पर अभी भी कब्जा कर रखा है। 20 वर्ष से अधिक वक्त हो गया है, कंपनी प्रबंधन ने कभी इंडस्ट्री चालू करने की कोशिश नहीं की और ना ही प्रशासन ने किसी तरह की कार्रवाई की जहमत उठाई। औद्योगिकरण के नाम पर 90 के दशक में संसाधनों की जमकर बंदरबांट हुई। ग्वालियर शहर के औद्योगिक क्षेत्रों के अलावा मालनपुर और बानमौर में ढेरों इंडस्ट्री शुरू हुई, लेकिन तब तक ही चलीं जब तक सब्सिडी और शासन से सुविधाएं मिलती रहीं। सूत्रों के अनुसार, नोएडा और दिल्ली बेस्ड कंपनियों ने यूनिट्स को जानबूझकर तकनीकी रूप से अपग्रेड ही नहीं किया। धीरे-धीरे ये कंपनियां बीमारू घोषित कर दी गईं। हजारों मजदूर सड़क पर आ गए। वर्ष 1980 से 1989 तक करीब तीस से चालीस कंपनियां औद्योगिक क्षेत्रों से भाग गईं। स्थिति यह बन गई कि एक तरफ राज्य शासन की सब्सिडी डकार कर बाहरी कंपनियां बाहर भागती रहीं। दूसरी तरफ शासन ने स्थानीय विशेषज्ञता वाली इंडस्ट्री को निगेटिव सूची में डाल रखा था। जिसमें किसी तरह का अनुदान या दूसरे फायदे स्थानीय निवेशकों को नहीं मिल पाए। इसका जीता जागता उदाहरण सरसों का तेल उद्योग है। ग्वालियर चंबल अंचल में करीब 20 हजार से अधिक स्प्रेलर इसलिए बंद हो गए कि स्थानीय उद्यमियों को उचित वित्तीय मदद नहीं मिल सकी।अब आलम यह है कि औद्योगिक क्षेत्रों से पलायन कर चुकी इन कंपनियों ने जमीनों पर अभी भी कब्जा जमा रखा है। जमीन एक-दो नहीं, हजारों बीघा है। कहीं कोर्ट केस चल रहा है तो किसी ने तकनीकी पेच फंसा रखा है। इंडस्ट्रियल इन्फ्रास्ट्रक्चर डवलपमेंट कॉर्पोरेशन के नोटिसों के जवाब तक नहीं दे रहे। कई कंपनियों ने अपने कैंपस किराए पर दे रखे हैं।
ऐसे लूटी गई सब्सिडी
दरअसल, अस्सी और नब्बे के दशक में राज्य शासन की तरफ से तीन प्रकार की सब्सिडी दी जाती थी। पहली सेल्सटैक्स की सब्सिडी, दूसरी इंट्रेस्ट सब्सिडी और तीसरी कैपिटल सब्सिडी। मध्यप्रदेश की सेल्सटैक्स छूट देश में सर्वाधिक रही। प्रदेश में सेल्सटैक्स की सब्सिडी 15 साल के लिए दी जाती थी। इसमें उत्पाद के हिसाब 2 से 12 फीसदी तक छूट थी। डब्ल्यूटीओ समझौते के बाद ये बंद हो गई। उसके बाद दिल्ली बेस्ड कंपनियों का आना भी रुक गया। इंट्रेस्ट सब्सिडी करीब दस साल के लिए दी जाती थी जो करीब पांच फीसदी थी। कैपिटल सब्सिडी सात साल के लिए दी जाती थी। ये अधिकतम 15 लाख हुआ करती थी। एक्सपर्टस के मुताबिक सब्सिडी में प्रति लाख करीब तीस हजार तक का फायदा उठाता था। इसका फायदा कंपनियों ने खुब उठाया। उसके बाद भी स्थिति यह है कि अंचल में एमपी आयरन 250 से 300 एकड़, हॉट लाइन 100 एकड़, सीटी कॉटन 35 एकड़, रीटा रूफिंग 10 एकड़ और रोहड़ी स्प्रिंक्स एवं फाइबर 10 एकड़ जमीन दबा कर बैठी हैं। इनके अलाव ये कंपनियां भी सब्सिडी डकार कर गायब हो गईं। इनमें रेशम पॉलीमर, ऊफारी केमिकल्स, उमनी मेटल्स, विभा स्टील, ग्वालियर स्टील, गोला सूज, एसीबी सीमेंट आदि शामिल हैं। उद्योग आयुक्त वी कांताराव कहते हैं कि निश्चित तौर पर कुछ फैक्ट्रियां सालों से बंद हैं। उनके पास बेशकीमती करोड़ों की जमीनें हैं। जल्द सर्वेक्षण करके ऐसी कंपनियों को अधिसूचित कर जमीनें हासिल करेंगे।
प्रदेश सरकार मप्र में औद्योगिक निवेश को आकर्षित करने की रणनीति फिलहाल निवेशकों को रास नहीं आ रही है। सरकार की देश-विदेश की यात्राओं और रोड शो के मद्देनजर हाईटेक बुलावा और ब्रांडिंग पर निवेशक मप्र में होने वाले इंवेस्टर्स समिट में मेहमान बनकर आने में तो जरूर रुचि दिखा रहे हैं, लेकिन वह सरकार और सूबे की जनता के भरोसे पर खरा नहीं उतर पा रहे हैं। यही कारण है कि इंवेस्टर्स समिट में दिल खोलकर एमओयू साइन करने और निवेशक घोषणा करने वाले यह उद्योगपति जमीन पर अपने उद्योगों को नहीं उतार पा रहे हैं। इसके चलते न तो प्रदेश में उद्योगों का जाल बिछ पा रहा है और न ही सूबे के बेरोजगार शिक्षित और अशिक्षित युवाओं को रोजगार मिल पा रहा है। हालांकि, यह बात और है कि इसके उलट प्रदेश सरकार मेहमान बनकर आने वाले निवेशकों और देश-विदेशी उपद्योगपतियों पर जमकर मेहरबान है और उनकी अगवानी और स्वागत में खर्च करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रही है। यही कारण है कि अब तक करीब 10 से अधिक इंवेस्टर्स समिट में अरबों रुपए से अधिक की राशि खर्च हो चुकी है, लेकिन प्रदेश में इसके एवज में आया निवेश कुछ खास नहीं कर पाया है। आंकड़ों पर गौर करें तो प्रदेश सरकार देशी-विदेशी उद्योगपतियों को रिझाने और मप्र में औद्योगिक निवेश को बढ़ाने के लिए अब तक इंवेस्टर्स समिट में करीब 120 करोड़ रुपए से अधिक की राशि खर्च कर चुकी है, लेकिन इसके नजीते में अब तक मात्र एक दर्जन से अधिक उद्योग ही धरातल पर उतर सके हैं। पिछली इंवेस्टर्स समिट के दौरान उद्योगपतियों के बीच किए गए कुल 327 एमओयू (मेमोरैंडम ऑफ अंडरस्टैडिंग) में से 33 निरस्त हो चुके हैं। यही नहीं शेष उद्योग या तो सर्वे तक सीमित हैं या काम चालू होने की स्थिति तक सिमटे हुए हैं। हालांकि, अभी तक कुल मिलाकर काम शुरू कर चुके करीब 20 उद्योगों में मात्र 6582 लोगों को ही रोजगार मिल सका है। प्रदेश में वर्ष 2008 से लेकर अब तक कुल 9 इंवेस्टर्स समिट हुई हैं। इनमें कुल 327 एमओयू हुए हैं, जिनमें करीब 20 करोड़ 5 लाख 20 हजार रुपए से अधिक की राशि खर्च हुई है। वहीं हाल ही में इंदौर में हुई ग्लोबल इंवेस्टर्स समिट में करीब 100 करोड़ रुपए (अनुमानित-ज्यादा भी हो सकती है) से अधिक राशि खर्च हुई है। पिछली इंवेस्टर्स समिट में नजर डालें तो अब तक करीब 50 से अधिक एमओयू निरस्त हो चुके हैंं। इन एमओयू में करीब एक लाख करोड़ रुपए से अधिक राशि के निवेश शामिल हैं, जो आंकड़ों में तो शामिल हो गए, लेकिन वह जमीन पर नहीं उतरेंगे। सूत्रों की मानें तो अभी तक 170 उद्योगों में ही सर्वे कार्य का शुरू हुआ है, जबकि 109 उद्योगों में जमीनी स्तर पर काम चालू हो गया है। वर्तमान में इनमें से कुल 13 उद्योगों पर ही उत्पादन शुरू हुआ है, जिनके जरिए सरकारी आंकड़े में मात्र 6 हजार 582 लोगों को ही रोजगार मुहैया हो सका है, जबकि सरकार इसके लिए अरबों की राशि सरकारी खजाने में से खर्च कर चुकी है।
रतलाम में नए उद्योगों के लिए रास्ता खुला
उधर, रतलाम में जमीन के अभाव में थमे औद्योगिक विकास को गति मिल सकती है। उद्योग विभाग ने नए उद्योगों के लिए भूमि उपलब्ध कराने का रास्ता निकाला है। वर्षो से बंद पड़ी 15 फैक्ट्रियों की लीज निरस्त कर दी गई है। इससे करीब 60 एकड़ भूमि नए उद्योगों के लिए उपलब्ध हो जाएगी और शहर में रोजगार के नए अवसर भी मिल जाएंगे। शहर में उद्योग स्थापित करने के लिए 150 से अधिक प्रस्ताव भूमि का इंतजार कर रहे हैं। अब उनमें से कई को हरी झण्डी मिल सकती है। जिला उद्योग एवं व्यापार केंद्र ने 35 से 40 साल पहले अनेक उद्योग स्थापित करने के लिए भूमि लीज पर दी थी। इनमें से आठ ने तो अब तक उत्पादन ही शुरू नहीं किया था। बीते सालों में रतलाम के औद्योगिक विकास के लिए उद्योग सम्मेलन भी करवाए गए। जब भी कोई कंपनी यहां आने का विचार करती जमीन के अभाव में उन्हें खाली हाथ लौटना पड़ता था। स्थानीय उद्योगपतियों को भी अब तक मायूसी हाथ लगी। भूमि नहीं मिलने पर उद्योग संघ व जनप्रतिनिधियों ने लगातार प्रयास किए। इसके बाद सरकार ने उत्पादन नहीं करने वाले उद्योगों एवं कोर्ट में विचाराधीन मामलों की रिपोर्ट तलब की। रिपोर्ट का अध्ययन करने के बाद उद्योगों की खाली पड़ी जमीन का आकलन कर लीज निरस्त करने का निर्णय लिया गया। इसके चलते रतलाम जिला उद्योग एवं व्यापार केंद्र ने औद्योगिक क्षेत्र में 15 फैक्टरियों की लीज निरस्त करने के निर्देश दिए हैं। अब उन भूमियों का कब्जा लेने के प्रयास किए जा रहे हैं। जानकारों के अनुसार औद्योगिक क्षेत्र में उद्योग के लिए भूमि आवंटन करने के दो साल के अंदर उत्पादन शुरू करना होता है। उत्पादन शुरू नहीं करने या स्थापित उद्योग द्वारा बिना विभाग की जानकारी दिए दो साल तक उत्पादन नहीं करने पर जिला उद्योग एवं व्यापार केंद्र उसकी लीज निरस्त कर सकता है। महू रोड पर माछलिया तालाब के पास विभाग ने आठ उद्योगों के लिए करीब 16 एकड़ भूमि आवंटित की है, लेकिन 12 वर्ष बीत जाने के बाद भी उत्पादन शुरू नहीं हो सका। इसके चलते विभाग ने इनकी लीज भी निरस्त कर दी है। वहीं औद्योगिक क्षेत्र में स्थित सेफेक्स इंडिया के पास पांच एकड़ जमीन है तो वर्ष 1978 से बंद है। परफेक्ट पाटरीज के पास 20 एकड़ जमीन है यह 1998 से बंद है। इसमें एक के पास अभी 90 दिन का समय है, वहीं दूसरी का मामला हाईकोर्ट में विचाराधीन है। अब यह जमीन नए उद्योगों की स्थापना के लिए उपलब्ध होगी। डेढ़ सौ से ज्यादा औद्योगिक इकाइयों के मामले में निराकरण होगा। नए उद्योग आने से रोजगार के भी नए अवसर बनेंगे।
इंडस्ट्रीज नहीं डालने के मामले का होगा सर्वे
उद्योग विभाग जल्द ही एक सर्वे शुरू कर रहा है। इसमें भोपाल संभाग सहित प्रदेश के सभी जिलों में ऐसे उद्योगपति चिन्हित किए जाएंगे, जिन्होंने तीन साल पहले जमीन ली है, और अब तक उद्योग स्थापित नहीं किया है। ऐसे उद्योगपतियों की लिस्ट बनाने के निर्देश आयुक्त वीएल कांताराव ने दिए है। गौरतलब है कि भोपाल में गोविंदपुरा, मंडीदीप सहित इंदौर संभाग के पीथमपुर आदि औद्योगिक क्षेत्र में कई उद्योगपतियों ने भारी तादात में जीएम से जमीन आवंटित कराई, लेकिन इन जमीनों का 40 फीसदी का भी उपयोग नहीं किया गया है। इस वजह से नए उद्योगों को जमीन देने में दिक्कत आ रही है। इसको देखते हुए उद्योग आयुक्त ने जमीनों के सर्वे करने को कहा है। वहीं नए औद्योगिक क्षेत्र में बिजली, पानी की समस्या को दूर करने के निर्देश भी उद्योग आयुक्त कांताराव ने जारी किए है।
उद्योग नहीं चला तो जमीन वापस कर कमाएं पैसा
वहीं सरकार ने जमीन अधिगृहित करने के मामले में फे्रंडली पेशकश भी की है। सरकार ने उद्योगपतियों को अनुपयोगी भूमि हस्तांतरण का अधिकार दे दिया है। इस तरह उद्योगपतियों को सरकार ने कमाई करने का रास्ता भी दे दिया है। भवन भूखंड अधिनियम में इस तरह का प्रावधान किया गया है। जिसे उद्योगपतियों की मांग पर ही किया गया है। दरअसल कई बार उद्योगपतियों को आवंटित जमीन का कुछ हिस्सा अनुपयोगी ही रहता है। भूखंड के चालीस फीसदी भाग पर निर्माण करना होता है। जबकि कई बार उद्योगपति 20 फीसदी भाग पर ही शेड या अन्य निर्माण करते है। बाकी बची हुई जमीन अनुपयोगी रह जाती है। इस स्थिति में यह जमीन दूसरे उद्योगपतियों को आवंटित भी नहीं हो पाती है। अब नए नियमों के मुताबिक अनुपयोगी भूमि का हस्तांतरण का अधिकार उद्योगपति को दिया गया है। उद्योग आयुक्त बीएल कांतराव ने बताया कि उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए भवन भूखंड अधिनियम में जरूरी प्रावधान किए है। इससे उद्योगपतियों को राहत मिलेगी। वहीं प्रदेश में उद्योगों का जाल भी बिछेगा। नए नियमों से औद्योगिक क्षेत्रों में नए उद्योगपतियों को जमीन मिलना आसान हो जाएगा। वहीं जमीन ट्रांसफर कर उद्योगपति को भी अतिरिक्त कमाई हो जाएगी। वहीं अब भूखंड का विभाजन पांच हजार स्क्वायर फीट तक कर दिया गया है। पहले यह दस हजार था। उद्योगपति अपनी जमीन पर कोई उद्योग सफलतापूर्वक नहीं चला पाए तो उद्योगपति जमीन को सबलीज पर भी दे सकते है। सबलीज पर देने के लिए विभाग ने कुछ शर्ते भी लगाई है। इस तरह नए उद्योगपतियों को सबलीज पर भी जमीन मिलने का रास्ता साफ हो गया है।
उद्योगपतियों को दी गई जमीन में से सिर्फ 20 फीसदी का हो रहा उपयोग
अभी तक प्रदेश सरकार ने उद्योगपतियों को जितनी जमीन उद्योग लगाने के लिए दी है उसका 20 फीसदी जमीन का ही उपयोग हो रहा है। बची जमीन को उन्होंने हड़प लिया है। इसलिए प्रदेश सरकार उक्त जमीन को छिनने की तैयार कर चुकी है। इसके तहत मध्य प्रदेश में बीमार उद्योगों के पास जो 27 हजार हेक्टेयर जमीन है उसे भी अधिगृहित करने की तैयारी की जा रही है। उल्लेखनीय है कि मप्र में अब तक हुए इंवेस्टर्स समिट में लाखों करोड़ रूपए के निवेश के प्रस्ताव आए और एमओयू हुए, लेकिन प्रदेश में उस अनुपात में औद्योगिक निवेश नहीं हुआ। आलम यह है कि मध्य प्रदेश सरकार औद्योगिक विकास के लिए लगातार निवेश को महत्व दे रही है, निवेशकों को लुभाने का हरसंभव प्रयास कर रही है, मगर निवेश बढऩे की बजाय गिरता जा है। एसोसिएटेड चैम्बर ऑफ कामर्स एण्ड इंडस्ट्रीज ऑफ इंडिया (एसोचैम) द्वारा किए गए एक अध्ययन से पता चलता है कि राज्य में बीते वर्ष निवेश में पिछले वर्ष की तुलना में 83 प्रतिशत की गिरावट आई है। एसोचैम के इकोनॉमिक रिसर्च ब्यूरो द्वारा कराए गए इस अध्ययन में बीते वर्ष निवेश में गिरावट का भी खुलासा हुआ है। इस रिपोर्ट के मुताबिक वित्तीय वर्ष 2013-14 में नए निवेश में 83 प्रतिशत की भारी गिरावट दर्ज की गई है। वित्तीय वर्ष 2012-13 में जहां 37 हजार करोड़ रुपए का नया निवेश किया गया था, वहीं गुजरे वित्त वर्ष में यह गिरकर मात्र 6350 करोड़ रुपए ही रह गया। उधर, बीते साल अक्टूबर में इंदौर में हुए इंवेस्टर्स समिट में विभिन्न औद्योगिक घरानों ने मध्य प्रदेश में निवेश के बड़े वादे किए। रिलायंस समूह से लेकर अदाणी समूह ने यहां मध्य प्रदेश सरकार के वैश्विक निवेशक सम्मेलन में करीब 7 लाख करोड़ रुपए के निवेश की प्रतिबद्धता जताई। जबकि प्रदेश सरकार ने कहा था कि 1 लाख करोड़ का निवेश संभावित है, लेकिन अभी तक कोई सामने नहीं आया है। इससे मप्र औद्योगिककरण में निरंतर पिछड़ता जा रहा है। इसलिए इस मामले में केंद्रीय सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योग मंत्रालय(एमएसएमईं ) द्वारा यह प्रयास किया जा रहा है कि राज्य सरकार खाली पड़े इंडस्ट्रियल प्लॉट के आंवटन की प्रक्रिया को सरल करें। इस दिशा में क्या कदम उठाए गए, कितने प्लॉट आवंटित हुए इसकी हर महीने समीक्षा की जाएगी। एमसएमई सेक्टर में मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा देने के लिए गठित अंतर मंत्रालीय समूह (आईएमजी) ने अच्छे बिजनेस प्लान रखने वाले कारोबारियों के लिए देश भर में खाली पड़े 30 हजार प्लॉट का आवंटन करने का प्रस्ताव दिया था। जिसके आधार पर राज्यों के साथ मिलकर जरूरी प्रावधान किए जा रहे हैं। मप्र में भूमि अधिग्रहण की समस्याओं को देखते हुए खाली पड़े प्लॉट को आवंटित करने की योजना बनाई गई है। इन प्लॉट पर कारोबार शुरू करना कहीं ज्यादा आसान है। यहां पहले से ही इंफ्रास्ट्रक्चर मौजूद है, ऐसे में कारोबारियों को कई सारे प्रक्रियागत मामलों से निजात मिल जाएगी। इस संबंध में राज्य सरकार से बातचीत शुरू हो गई है। जिसमें यह कहा गया है कि वह खाली पड़े प्लॉट के आवंटन प्रक्रिया को आसान करें। जिससे कि उनका आवंटन जल्द से जल्द किया जा सके। एमएसएमई मंत्रालय की कोशिश है कि आवंटन प्रक्रिया को जल्द से जल्द पूरा कर लिया जाए। मंत्रालय ने सभी राज्य सरकार से कहा है कि वह अपने यहां औद्योगिक पार्कों, इंडस्ट्रियल एस्टेट और स्पेशल इकॉनोमिक जोन में खाली पड़ी जमीन की तलाश करे और ये खाली जमीन छोटे उद्योगों को उपलब्ध कराएं। सरकार की योजना इन जमीनों पर नॉन कोर सेक्टर के उद्योगों को स्थापित करने की है। खाली पड़ी इन जमीनों का सबसे अधिक फायदा टैक्स्टाइल, आईटी, ऑटो पार्ट और फूड प्रोसेसिंग जैसे नॉन कोर सेक्टर के उद्योगों को मिल सकता है। ये उद्योग बेहद कम स्थान पर स्थापित होते हैं। ऐसे में सरकार छोटे इंडस्ट्रियल प्लॉट पर अधिक संख्या में उद्योग स्थापित कर सकेगी।
खाली पड़े हैं 7 हजार औद्योगिक भूखंड
केंद्रीय एमएसएमई मंत्रालय के अनुसार, मप्र में औद्योगिक पार्क, इंडस्ट्रियल एरिया और स्पेशल इकॉनोमिक जोन में करीब 7,000 से अधिक औद्योगिक भूखंड खाली पड़े हैं। औद्योगिक जमीनों सबसे बड़ी समस्या स्पेशल इकॉनोमिक जोन में है। देश भर में खाली पड़े प्लॉट में से 50 फीसदी प्लॉट विशेष आर्थिक क्षेत्रों (सेज) में खाली पड़े हैं। यदि राज्य सरकारें उचित योजना बनाकर इन खाली भूखंडों को जरूरतमंद उद्योगों को उपलब्ध कराते हैं तो देश भर में लाखों नए उद्योग सफलता पूर्वक शुरू हो सकते हैं। इसको देखते हुए सबसे पहले मप्र से इसकी शुरूआत होने जा रही है। उधर,प्रदेश सरकार बीमार उद्योगों के पास पड़ी 27 हजार हेक्टेयर जमीन भी अधिगृहित करने की तैयारी कर रही है। इसके लिए नोटिस भेजना शुरू कर दिया गया है। छोटे उद्योगों को जमीन उपलब्ध कराने के लिए मध्य प्रदेश सरकार औद्योगिक क्षेत्रों का सर्वे भी करवा रही हैं। इसके तहत उन उद्योगों की जांच की जा रही है जिन्होंने औद्योगिक क्षेत्रों में जमीन तो ले रखी है। लेकिन लंबे समय से वहां पर औद्योगिक गतिविधि शुरू नहीं की है। ऐसे उद्योगों की जमीनें वापस ली जा सकती हैं। इसके साथ ही जरूरत से ज्यादा जमीन अपने नाम पर आवंटन करवाने वाले उद्योगों की जमीनें वापस लेने की तैयारी भी की जा रही हैं।
नए इंडस्ट्रीयल कॉरिडोर किया जा रहा विकसित
विंध्य व महाकौशल के लिए जबलपुर-कटनी-सतना-सिंगरौली इंडस्ट्रीयल कॉरिडोर बहुप्रतिक्षित योजना है। इस योजना के मूर्त रूप लेने से सतना, रीवा, सीधी व सिंगरौली में विकास के अवसर पर उपलब्ध होंगे, वहीं जबलपुर व कटनी का भी औद्योगिक विकास होगा। इसके लिए मप्र शासन ने 6 जिलों में करीब 6।5 हजार वर्ग हेक्टेयर जमीन चिह्नित की है। लगभग 370 किमी दायरे में चिह्नित जमीनों पर औद्योगिक क्षेत्र विकसित किया जाएगा। इन पर बड़े उद्योग तो लगेंगे ही साथ ही लघु और सूक्ष्म उद्योग भी लगाए जाएंगे। इतने बड़े पैमाने पर उद्योग स्थापित होने से रोजगार व संसाधन दोनों का विकास होगा। कॉरीडोर को अमलीजामा पहनाने की जिम्मेदारी एकेवीएन को दी गई है। विभाग ने कलेक्टरों के माध्यम से जमीन की तलाश शुरू कर चुकी है। विंध्य व महाकौशल के 6 जिलों में 6541.842 वर्ग हेक्टेयर लैंड बैंक सुरक्षित की गई है। प्रस्तावित इंडस्ट्रीयल कॉरिडोर के लिए सतना, रीवा, सीधी, सिंगरौली, जबलपुर व कटनी में किया जमीन तलाशी गई है। सबसे ज्यादा जमीन कटनी में 4350.581 वर्ग हेक्टेयर है, जबकि सबसे कम सीधी में 91.156 वर्ग हेक्टेयर है। सतना में 892.495, रीवा में 244.186, सिंगरौली में 232.620 और जबलपुर में 724.794 वर्ग हेक्टेयर जमीन चिह्नित की गई है। इंडस्ट्रीयल कॉरिडोर के लिए जमीन चिह्नित करने में इस बात का ध्यान रखा गया है कि जमीन नेशनल हाइवे से ज्यादा दूर न हो। सतना के उचेहरा में 86.219, इचौल में 29.974, बगहा में 40.134, नयागांव-बिरसिंहपुर में 100.170, रहिकवार में 64. 096, सुरदहा कला में 96.035, खिरिया कोठार में 14.824, सोनौरा में 86.752, उमरी-रामपुर बाघेलान में 67.57 व बाबूपुर अतरहरा-उचेहरा में 180.364 वर्ग हेक्टेयर जमीन चिह्नित है। रीवा में मऊगंज के घुरहेटा कला में 175. 059 व गुढ़ के हरदी में 69.137 वर्ग हेक्टेयर चिह्नित जमीन है। सिंगरौली में 52.560, पिडस्ताली में 63.122, फुलवारी में 60.630, बाघाडीह में 29.980 व गनियारी में 32.328 वर्ग हेक्टेयर, सीधी के चोरबा में 9.940, रामपुर सिहावल में 72.136 व बरहाई चुरहट में 9.080 वर्ग हेक्टेयर जमीन चिह्नित है। इस योजना के तहत हर जिले की विशेषता के आधार पर औद्योगिक इकाई लगाई जाएगी। सतना में सीमेंट उद्योग के अलावा खाद्य प्रसंस्करण के लिये सप्लाई चेन लॉजिस्टिक सेंटर, प्रोसेसिंग इन्फ्रास्ट्रक्चर रीजनल हब्स का विकास, फूड प्रोसेसिंग यूनिट आदि विकसित की जाएगी। इंडस्ट्रियल कॉरीडोर एनएच- 7 व 75 पर प्रस्तावित है। इसमें सिटी सेंटर, मल्टी प्रोडक्ट इंडस्ट्रीयल पार्क, लॉजिस्टिक पार्क , एग्रो एंड हार्टीकल्चर पार्क, कोल बेस्ड पार्क, वुड पार्क, हर्बल पार्क, फीस प्रोसेसिंग पार्क , होटल डेवलपमेंट प्रोजेक्ट, इंजीनियरिंग पार्क , टूरिस्ट विलेज, रूरल टेक्नोलॉजी पार्क , इंटीग्रेटेड टाउनशिप को शामिल किया गया है। इसको लेकर एकेवीएन काम भी कर रहा है। इसके बनने से यह क्षेत्र सभी महानगरों के संपर्क में रहेगा।
मप्र में सेज की जमीनों को उद्योगों का इंतजार
केंद्र सरकार के भूमि अधिग्रहण कानून को लेकर देशभर में मचे बवाल के बीच मप्र में राज्य सरकार ने भी उद्यमियों को खेती की चाहे जितनी जमीन लेने की छूट दे रखी है, जबकि तस्वीर का दूसरा पहलू ये भी है कि इंडस्ट्री के लिए पहले ही आवंटित की जा चुकी जमीन का पूरा उपयोग नहीं किया जा सका है। ये खुलासा केंद्रीय उद्योग एवं वाणिज्य मंत्रालय की ताजा रिपोर्ट से हुआ है, जो बताती है कि मप्र सरकार ने स्पेशल इकॉनोमिक जोन (सेज) के लिए वर्ष 2007 से 1551.13 हजार हेक्टेयर जमीन आवंटित की है, जिसमें से उपयोग सिर्फ 13.53 प्रतिशत (209.93 हेक्टेयर) का ही हुआ है। सेज को लेकर निवेशक रूचि नहीं दिखा रहे हैं। सरकार ने इंदौर के पीथमपुर में 1113 हेक्टेयर जमीन एसईजेड के लिए नोटिफाईड थी, उपयोग सिर्फ 209.93 हेक्टेयर का हुआ। इसी तरह भोपाल के अचारपुरा में 145 हेक्टेयर जमीन आवंटित, लेकिन पूरी खाली पड़ी है। जबलपुर के हरगढ़ और डंगुरिया में 101-101 हेक्टेयर जमीन आवंटित, लेकिन पूरी खाली पड़ी। इसी तरह प्रदेश के अन्य क्षेत्रों में 89 हेक्टेयर जमीन आवंटित की गई है लेकिन उनका कोई उपयोग नहीं किया गया है। रिपोर्ट बताती है कि केन्द्र सरकार ने देशभर में 365 एसईजेड नोटिफाईड कर 45782.64 हेक्टेयर जमीन आरक्षित की गई, लेकिन इसमें से केवल 43 फीसदी का ही उपयोग हुआ है। 57 प्रतिशत जमीन खाली पड़ी है। इधर मप्र में हाल ही में सरकार ने उद्योगपतियों को सीलिंग एक्ट से छूट देने के लिए अध्यादेश का प्रस्ताव कैबिनेट में मंजूर किया है। इसके तहत उद्योगों के लिए चाहे जितनी जमीन ली जा सकती है। प्रस्ताव पर राज्यपाल की मुहर लगते ही कानून लागू हो जाएगा। ट्रायफेक के एमडी डीपी आहूजा की माने तो प्रदेश में नोटिफाईड 1500 हेक्टेयर में से हमने इंदौर में अब तक एसईजेड में 350 हेक्टेयर जमीन का उपयोग कर लिया है, 150 हेक्टेयर के लिए भी हमारे प्रस्ताव तैयार हैं। तकनीकी कारणों से अधिकांश भूमि का उपयोग नहीं हो पाया है। इसमें 300 हेक्टेयर जमीन अधिग्रहण न होने के कारण अटकी हुई है। इसलिए हमने एसईजेड की शेष भूमि को डि-नोटिफाईड करने का प्रस्ताव भेज चुके हैं।
सार्वजनिक जमीन लुटा रही शिवराज सरकार
समाजवादी जन परिषद (सजप) के अनुराग मोदी का आरोप है कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की सरकार ने अपने हालिया दस्तावेज 'लैंड बैंक-2014Ó में उद्योगों को देने के लिए जो 1.5 लाख एकड़ जमीन आरक्षित की है, वो गैरकानूनी है। यह मप्र, राजस्व पुस्तक परिपत्र, पंचायती राज कानून और उच्चत्तम न्यायायलय के निर्देशों की खुली अवहेलना है और गांव के संसाधन कौडिय़ोंं के मोल लुटाने की साजिश है। दरअसल, सरकार ने 'लैंड बैंक-2014Ó में प्रदेश में लगभग 300 क्षेत्र चिन्हित किए है, जिसमें फिलहाल, लगभग, 65 हजार हेक्टर (1.5 लाख एकड़) जमीन उद्योगों को देने के लिए की आरक्षित की गई है। इसमें अधिकांश जमीन आज भी राजस्व रिकार्ड में चरनोई आदि नाम से दर्ज है। यह जमीन, जिला और तहसील मुख्यालयों से जुड़े गांवों की हाई-वे और प्रमुख मार्गों से लगी होने के करण बेशकीमती है। श्रमिक आदिवासी संगठन के मंगलसिंग और किसान आदिवासी संगठन के फागराम का कहना है कि एक-तरफ भूमिहीन दलित और आदिवासी जमीन को तरस रहे है, सरकार के पास विस्थापितों को देने के लिए जमीन नहीं है। वहीं दूसरी तरफ उद्योगों के नाम पर बंदरबांट मची हुई है।
नए भूमि नियम रास नहीं आ रहे उद्योगपतियों और औद्योगिक संगठनों को
मध्यप्रदेश में उद्योगों को जमीन देने के लिए राज्य सरकार द्वारा बनाए गए नए भूमि नियमों पर उद्योगपतियों और औद्योगिक संगठनों ने कड़ा ऐतराज जताया है। उनका कहना होगा कि भूमि हर क्षेत्र के विकास का आधार है। चाहे वह उद्योग हो या नगरीय जनजीवन या किसानी। भूमि इनके विकास का आधार है। दूसरी तरफ यह भी है कि जमीन पर शुल्क लेकर सरकार अपने खर्चों और लोककल्याणकारी योजनाओं के लिए धन उगाह रही है। नए नियमों में विसंगतियां को रेखांकित करते हुए संगठनों का कहना है कि मप्र में जो उद्योग हैं उनके लिए नए निमय तकलीफदायक हैं। असल समस्या है कि नए भूमि नियमों के तहत नगरीय क्षेत्रों में विकसित और विकसित किए जाने वाले औद्योगिक क्षेत्रों में भूमि का मूल्य आवासीय भूखण्ड के लिए कलेक्टर द्वारा निर्धारित गाइड लाइन के बराबर होगा। इस प्रावधान से औद्योगिक क्षेत्रों की जमीन एवं भूखण्डों की कीमत कई गुना बढ़ गई है। उद्योग विभाग ने हाल ही में इन नए नियमों को अधिसूचित कर इन्हें जारी कर दिया है। औद्योगिक संगठनों की आपत्ति है कि यानी कलेक्टर गाइड लाइन भूमि के स्वामित्व के लिए है, जबकि औद्योगिक क्षेत्रों में दिए जाने वाली भूमि लीज पर दी जाती है। अब उद्योगों को प्रतिवर्ष लीजरेंट देना होगा। नए आदेश के तहत औद्योगिक क्षेत्रों में भूमि आवंटन के लिए विकास शुल्क, भू-भाटक, वार्षिक संधारण शुल्क तय होगा। प्रब्याजि शुल्क भूमि के मूल्य में दी जाने वाली छूट को प्रभावी कर तय किया जाएगा। इन सब शुल्कों को उद्योगपतियों ने उद्योग विरोधी बताया है। इसे अव्यवहारिक भी कहा जा रहा है और नए आदेश को उद्योगों को हतोत्साहित करने वाली नीतियों में गिना जा रहा हैं। ग्रामीण क्षेत्रों के औद्योगिक क्षेत्रों में भूमि का मूल्य संबंधित क्षेत्र की असिंचित कृषि भूमि के आधार पर शुल्क निर्धारण भी विवाद में है। आज देश को ताकतवर होने के लिए औद्योगिक विकास के रास्ते पर चलाना होगा और सरकार विकास के लिए जिस तरह देशी-विदेशी निवेश का रास्ता खोल रही है, उसमें अगर कुछ बाधा है, तो वह जमीन ही है। इस पर सरकार का कब्जा नहीं हुआ, तो फिर भारत में उद्योग लगाने आएगा कौन? यह विचार यह साबित करता है कि उद्योग सरकार की प्राथमिकता में शामिल हैं। नियमों में विविधता और विरोधाभास सरकार को भी परेशान कर रहे हैं तो जनता खासकर ग्रामीणों के लिए आशंका का माहौल बना हैं। उद्योगों को जिस प्रकार की सहायता उपलब्ध है, वैसी सहायता कृषि को भी दी जा सकती है लेकिन सवाल है कि किसानों के लिए फिर टैक्स भी देना होगा? कुल मिला कर मामला सरल नहीं कहा जा सकता। अर्थव्यवस्था में किसान और जमीन एक महत्वपूर्ण पक्ष है। कोई भी सरकार होगी वह इसको नजरअंदाज नहीं कर सकती। मध्यप्रदेश सरकार की जमीन पर नए शुक्ल लगाने की मजबूरी भी हो सकती है। इसे जनकल्याण के विकास और उनके लिए फंड एकत्रित करने की कोशिश के रूप में ही समझा जा सकता है। ----------------

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