bhedaghat

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भेड़ाघाट

Saturday, September 18, 2010

धर्म के नाम पर सब चलेगा भाई

'पावन पत्नियों की एक त्रासद कलुषित कथा

भगवान जैसे निर्जीव चीज की सेवा में करने के नाम परपुजारियों और मठाधिशों की सेवा के लिए शुरू की गई देवदासी प्रथा घोषित रूप से भले ही समाप्त हो गई हो लेकिन देवदासियां आज भी हैं। इस बात को बल हाल ही में रितेश शर्मा की एक डॉक्युमेंट्री फिल्म 'द होली वाइव्सÓ से मिला है। दिल्ली में प्रदर्शित की गई इस फिल्म में देवदासी प्रथा जैसी उस कुरीति पर सवाल उठाए गए, जिस पर मेनस्ट्रीम मीडिया में आजकल मुश्किल से ही कोई बहस होती है। यह फिल्म बताती है किस तरह इस दौर में जहां महिला अधिकारों को लेकर हल्ला मचाया गया, घरेलू हिंसा विरोधी कानून बने और महिला अधिकारों पर कई बहसें हुईं, बावजूद इसके कर्नाटक, राजस्थान और मध्यप्रदेश के कई इलाके ऐसे हैं जहां इन कानूनों की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं, वो भी धर्म के नाम पर और पूरी तरह सार्वजनिक तौर पर।
अपनी फिल्म के निर्माण के दौरान रितेश उन इलाकों में गए, जहां महिलाओं को धर्म और आस्था के नाम पर वेश्यावृत्ति के दलदल में धकेला जाता है और कई बार बलात्कार तक का शिकार होना पड़ता है। लेकिन जीविकोपार्जन और सामाजिक-पारिवारिक दबाव के चलते ये महिलाएं इस धार्मिक कुरीति का हिस्सा बनने को मजबूर हैं। अपने प्रारंभिक दौर में देवदासी प्रथा के अंतर्गत ऊंची जाति की महिलाएं जो पढ़ी-लिखी और विदुषी हुआ करती थीं, मंदिर में खुद को समर्पित करके देवता की सेवा करती थीं और देवता को खुश करने के लिए मंदिरों में नाचती थीं। समय ने करवट ली और इस प्रथा में शामिल महिलाओं के साथ मंदिर के पुजारियों ने यह कहकर शारीरिक संबंध बनाने शुरू कर दिए कि इससे उनके और भगवान के बीच संपर्क स्थापित होता है। धीरे-धीरे यह उनका अधिकार बन गया जिसको सामाजिक स्वीकार्यता भी मिल गई। उसके बाद राजाओं ने अपने महलों में देवदासियां रखने का चलन शुरू किया। मुगल काल में, जबकि राजाओं ने महसूस किया कि इतनी संख्या में देवदासियों का पालन-पोषण करना उनके वश में नहीं है, तो देवदासियां सार्वजनिक संपत्ति बन गईं।
आज भी कहीं वैसवी, कहीं जोगिनी, कहीं माथमा तो कहीं वेदिनी नाम से देवदासी प्रथा देश के कई हिस्सों में कायम है। कर्नाटक के 10 और आंध्र प्रदेश के 14 जिलों में यह प्रथा अब भी बदस्तूर जारी है। देवदासी प्रथा को लेकर कई गैर-सरकारी संगठन अपना विरोध दर्ज करा चुके हैं। इन संगठनों का मानना है कि यह प्रथा आज भी अगर बदस्तूर जारी है तो इसकी मुख्य वजह इस कार्य में लगी महिलाओं की सामाजिक स्वीकार्यता है। इससे बड़ी समस्या इनके बच्चों का भविष्य है। ये ऐसे बच्चे हैं, जिनकी मां तो ये देवदासियां हैं, लेकिन जिनके पिता का कोई पता नहीं है। ये तमाम समस्याएं उठाने वाली रितेश की इस फिल्म को मानवाधिकारों के हनन का ताजा और वीभत्स चित्रण मानते हुए राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंचों पर प्रदर्शित किया जा रहा है। रितेश हालांकि मानते हैं कि फिल्म के प्रदर्शन से ज्यादा जरूरी है कि इस विषय पर हमारे देश की कानून व्यवस्था कोई ठोस कदम उठाए, जिससे न केवल इस कुप्रथा का उन्मूलन हो, बल्कि ऐसी महिलाओं और उनके बच्चों को भी पुनर्वासित किया जा सके, जो इस कुप्रथा की गिरफ्त में हैं।
देवदासी हिन्दू धर्म में ऐसी स्त्रियों को कहते हैं जिनका विवाह मन्दिर या अन्य किसी धार्मिक प्रतिष्ठान से कर दिया जाता है। समाज में उन्हे उच्च स्थान प्राप्त होता है और उनका काम मंदिरों की देखभाल तथा नृत्य तथा संगीत सीखना होता है। परंपरागत रूप से वे ब्रह्मचारी होती हैं पर अब उन्हे पुरुषों से संभोग का अधिकार भी रहता है। यह एक अनुचित और गलत सामाजिक प्रथा है। इसका प्रचलन दक्षिण भारत में प्रधान रूप से था। बीसवीं सदी में इनकी स्थिति में कुछ परिवर्तन आया। पेरियार तथा अन्य नेताोओं ने देवदासी प्रथा को समाप्त करने की कोशिश की। कुछ लोगों ने अंग्रेजों के इस विचार का विरोध किया कि देवदासियों की स्थिति वेश्याओं की तरह होती है।
कुछ दिनों पहले मैंने किसी न्यूज़ चैनल पर वेलोर की खबर चलते देखी। खबर कुछ ऐसी थी कि 12-13 साल की बच्चियो को देवदासी चुना गया और उन्हे अगले कुछ सालों तक देव और देवियों यानी भगवान की सेवा मे अपना जीवन व्यतित करना है समाज में इन बालिकाओं का दर्जा जरुर कुछ श्रेष्ठ हो जायेगा। पर देवदासी प्रथा के तहत उनकी आज़ादी छिन चुकी है, इस बात से अनजान ये बच्चियां सिर्फ इस बात से खुश थी कि अब उन्हें मंदिर की स्वामिनी, और देखरेख का अधिकार प्राप्त हो गया है. वहा रहने के दौरान वस्त्र और अच्छा खाना खाने को मिलेगा साथ ही उस गरीबी से भी छुटकारा जिनके साथ वह पैदा हुई है. कमर के उपरी हिस्से तक निर्वस्त्र इन बच्चियो के सर पर मटकियां रख कर जुलुस भी निकाला गया। भीड़ के आगे प्रतिनिधित्व करती इन किशोरियों का बालमन जब परिपक्व होगा ? बढती उम्र और मातृत्व की लालसा चरम पर होगी , और ये यादें साथ होंगी तो क्या वो एक सम्मानित जीवन की नीव रख पाएंगी ? कैसे जी पाएंगी वो इन कड़वी यादों के साथ? दूसरी ओर एक खुशहाल जिंदगी न मिल पाने पर, समाज द्वारा नकार दिए जाने पर क्या वेश्यावृति की ओर इनके कदम नहीं मुडेंगे? न चाहते हुए भी उन्हें वेश्यावृति के गहरे दलदल मे ढकेल दिया जाइएगा.
हम थोडा पीछे इतिहास के आइने मे देखे तो यह समझना आसन हो जाएगा की 6वीं और 10वीं शत्ताब्दी मे इसका क्या स्वरुप था और बाद मे यह कितना विकृत हो गया था। राजाओ और सामंतो के लिए यह भोग विलास, और समाज मे अपनी प्रतिस्ठा की पहचान बन चुका था. इस प्रथा को सबसे ज्यादा बढावा दिया चोल ने.सदियों के गुजरने के बाद भी प्रथा ज्यो की त्यों चली आ रही है, बदले तो सिर्फ हमारे बाहरी आवरण , इस कुप्रथा की जड़े इतनी गहरी है कि वो इन बच्चियो के सुनहरे वर्तमान और भविष्य पर भारी है। जो मैंने देखा और जो अनुभव किया उसमे दो चीजे थी। पहली यह कि बच्चियों को निर्वस्त्र कर के घुमाया जा रहा था। दूसरा, लोगो का हुजूम जो इन नाबालिग बच्चियो का उत्साहवर्धन कर रहे थे? और प्रशासन को कोई खबर नहीं थी। जबकि कर्नाटक मे प्रशासन ने 1982 मे और आन्ध्र प्रदेश मे 1988 मे इस प्रथा पर रोक लगा दी थी. पर 2006 मे हुए सर्वे मे यह बात निकल कर सामने आई की इस परम्परा का निर्विरोध पालन होता चला आ रहा है. उन समुदाय की भावना प्रगतिशील देश की कल्पना पर भारी पड़ रही है. और उन्हें कोई मतलब नहीं है की इस बुराई को अपने साथ ढोते रहना कितना गलत है. समय- समय पर फिल्मकारों ने इस विषय की गंभीरता को उठाने की कोशिश की है लेकिन हमारे यहाँ की जनता जो की मलिका और प्रियंका चोपड़ा को अधनंगी देखने की आदि हो चुकी है ने नकार दिया. फिल्म परनाली इसका बेहतरीन उदहारण है. कि कैसे देवदासी बनी नायिका अपने ख़ोल से बाहर आ कर मातृत्व सुख और अपने बच्चे को सामाजिक अधिकार दिलाने के लिए समाज के ठेकेदारों से लडती है.
लेकिन यहाँ सवाल ये है की अगर कोई मौत होती है और गाजे -बाजे के साथ मौत का जनाजा निकलता है,तो भी लोगो को मालूम चल जाता है, पर यहां तो गाजे बजे के साथ इन बच्चियों के भविष्य का तमासा निकाला जा रहा था। सदियों से चली आ रही परम्परा का अब ख़तम होना बहुत ही जरुरी है। देवदासी प्रथा हमारे इतिहास का और संस्कृति का एक पुराना और काला अध्याय है जिसका आज के समय मे कोई औचित्य नहीं है। इस प्रथा के खात्मे से कही ज्यादा उन बच्चियो के भविष्य के नीव का मजबूत होना बहुत आवश्यक है। जिनके ऊपर हमारे आने वाले भारत का भविष्य है, उनके जैसे परिवारों की आर्थिक स्थिति सुधरनी बहुत जरुरी है । पर इस उम्र मे उन कोमल बालिकाओ को सपने देखने का अधिकार भी नहीं है।
इसके इतर एक अच्छी खबर यह है कि पुरी के प्रसिद्ध श्री जगन्नाथ मंदिर में 800 साल पुरानी देवदासी परंपरा खत्म होने के कगार पर है और यहाँ विशेष अनुष्ठानों के लिए केवल दो ही देवदासियाँ हैं। इस बात का पहले से ही आभास होने पर मंदिर प्रशासन ने परंपरा को जीवंत रखने के लिए 90 के दशक की शुरुआत में नई देवदासियों को जोडऩे का प्रयास किया था लेकिन इस पद्धति के खिलाफ देशभर में हुए विरोध प्रदर्शन के चलते और महिलाओं के इसमें रुचि नहीं दिखाने से ये कोशिशें नाकाम रहीं। 12वीं सदी के इस मंदिर में 36 अलग-अलग सेवाएँ देवदासियों द्वारा की जाती हैं। स्थानीय तौर पर इन्हें महरी कहा जाता है।
एक शोधकर्ता रवि नारायण मिश्रा ने कहा कि देश में यह एक मात्र विष्णु मंदिर है, जहाँ महिलाओं को नृत्य और गायन के अलावा विशेष अनुष्ठान करने की भी इजाजत होती है। महरी सेवा एक मात्र सेवा है, जिसमें महिलाओं की एक बड़ी भूमिका होती है। पुजारी रवींद्र प्रतिहारी कहते हैं कि एक महिला के बिना इस अनुष्ठान को नहीं किया जा सकता। जगन्नाथ मंदिर प्रशासन के उप प्रशासक भास्कर मिश्रा ने कहा कि इस बार नंदोत्सव के दौरान महिलाओं की सेवा नहीं ली जा सकी। उन्होंने कहा कि भगवान कृष्ण के जन्मोत्सव में देवदासियाँ उनकी माँ की भूमिका में होती हैं। भास्कर मिश्रा ने कहा कि 80 साल पहले इस मंदिर में दर्जनों देवदासियाँ थीं लेकिन अब केवल दो शशिमणि और पारसमणि रह गई हैं। उन्होंने कहा कि 85 वर्षीय शशिमणि के बाएँ पैर में फ्रेक्चर होने के कारण वह बिस्तर पर हैं वहीं पारसमणि ने भी लंबे समय से मंदिर आना बंद कर दिया है। मंदिर के पास अपने कमरे में बिस्तर पर ही रहने को मजबूर शशिमणि कहती हैं कि वह अब सेवा नहीं कर सकतीं, जो कि वह आठ साल की उम्र से करती आ रहीं हैं।
उन्होंने कहा कि मैं आठ साल की उम्र में महरी बन गई थी। मैं उस समय से मंदिर के अनुष्ठानों में भाग ले रही हूँ। शशिमणि ने कहा कि लोग देवदासियों का सम्मान करते हैं। उन्होंने कहा कि देवदासियों को भगवान जगन्नाथ की 'जीवित पत्नीÓ माना जाता है। उन्होंने कहा कि वह मेरे पति हैं और मैं उनकी पत्नी। इस बारे में कोई विवाद नहीं है।
उल्लेखनीय है कि महाराष्ट्र की देवदासियों ने इस साल स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर मुंबई में अपना अर्धनग्न प्रदर्शन किया. वे सरकार के सामने पहले ही अपनी मांगे कई बार रख चुकी हैं तथा विरोध प्रदर्शन कर चुकी हैं. उन्हें उम्मीद है कि अब इस अनोखे अर्धनग्न प्रदर्शन से सरकार दबाव में आ जायेगी और उनकी सुनवाई हो सकेगी. यह एक अलग ही प्रश्न है जो हमारे समाज की संरचना पर विचार करने के लिए मजबूर करता है कि इस जमाने में भी देवदासी प्रथा जीवित क्यों है. यह प्रथा जिसमें माना जाता है कि इन महिलाओं का विवाह भगवान् से हुआ है और वे उन्हीं की सेवा के लिए मंदिर के प्रांगण में रहती है. लेकिन हकीकत का सभी को पता है कि ये महिलायें निराश्रित की तरह और बदहाल होती हैं और भगवान जैसे निर्जीव चीज की सेवा में क्या करेंगी, उन्हें तो वहां के पुजारियों और मठाधीश की सेवा करनी पड़ती है.
यह शुद्ध रूप से धर्मक्षेत्र की वेश्यावृत्ति है जिसे धार्मिक स्वीकृति हासिल है. पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने इन देवदासियों, जिन्हें जोगिनियां भी कहा जाता है के बच्चों की स्थिति का संज्ञान लिया और आंध्र प्रदेश सरकार से पूछा कि उसने इन बच्चों के कल्याण के लिए क्या किया है. 2007 में सुप्रीम कोर्ट को एक पत्र मिला था जिसमें इन बच्चों की दुर्दशा को बयान किया गया था. और जिसे कोर्ट ने जनहित याचिका मान लिया था.मानवाधिकार आयोग के 2004 के एक रिपोर्ट में इन देवदासियों के बारे में बताया गया है कि देवदासी प्रथा पर रोक के बाद वे देवदासियां नजदीक के इलाके में या शहरों में चली गयी जहां वे वेश्यावृत्ति के धंधें में लग गयी. 1990 के एक अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक 45.9 प्रतिशत देवदासियां एक ही जिलें में वेश्यावृत्ति करती हैं तथा शेष अन्य रोजगार जैसे खेती-बाड़ी या उद्योगों में लग गयी. 1982 में कर्नाटक सरकार ने और 1988 में आंध्र प्रदेश सरकार ने देवदासी प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया था लेकिन लगभग कर्नाटक के 10 और आंध्र प्रदेश के 15 जिलों में अब भी यह प्रथा कायम है.
इस प्रथा को कई सारे दूसरे स्थानीय नाम से भी जाना जाता है. राष्ट्रीय महिला आयौग ने भी अपनी तरफ़ से पहल लेकर इन महिलाओं के बारे में जानकारी एकत्र करने के लिए राज्य सरकारों से सूचना मांगी. इसमें कई ने कहा कि उनके यहां यह प्रथा समाप्त हो चुकी है जैसे तमिलनाडू. ओडि़शा में बताया गया कि केवल पुरी मंदिर में एक देवदासी है. लेकिन आंध्र प्रदेश ने 16,624 देवदासियों का आंकड़ा पेश किया. महाराष्ट्र सरकार ने कोई जानकारी नहीं दी, जब महिला आयोग ने उनके लिए भत्ते का एलान किया तब आयोग को 8793 आवेदन मिले, जिसमें से 2479 को भत्ता दिया गया. बाकी 6314 में पात्रता सही नहीं पायी गयी.

Wednesday, September 1, 2010

कोख का बेखौफ सौदा

आधुनिक जीवनशैली,महंगे शौक ,धन और सैर-सपाटे की चाह में भारत के लड़़के शुक्राणु और लड़कियां अंडाणु बेचने में जरा भी हिचक नहीं कर रहे तो कुछ लड़कियां ऐसी भी हैं जो पैसे के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। वहीं इस आधुनिक भारत में एक ऐसा भी वर्ग है जो अनछुई युवतियों से ही शादी करने की चाह रखता है भले ही उसका चरित्र कितना ही कलंकित क्यों न हो।
हमारे देश पहले में बिन व्याही मॉं बनना समाज के लिए कलंक की बात थी आज भी है लेकिन अब चंद रुपयों की खातिर लड़कियां घर से महीनों दूर रहकर कोख किराए पर देने जैसा जोखिम भरा काम कर रही हैं। विज्ञान में इन्हें सरोगेट मदर कहा जाता है। एक इस काम के लिए इश्तहार देता है और दूसरा तत्काल तैयार हो जाता है। सुनने में यह बात अविश्वनीय लगे लेकिन मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से लेकर दिल्ली तक व्यवसाय धड़ल्ले से चल निकला है। टेस्ट ट्यूब बेबी सेंटर की सुख सुविधाएं भी कुवांरियों को मॉं बनने के लिए आकर्षित कर रही हैं। सरोगेसी के मामले में राजधानी मेट्रोसिटी की तरह बढ रहा है। आलम यह है कि यहां यूपी, बिहार, महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश तक से दंपत्ती सरोगेट मदर की तलाश में आ रहे हैं।
चौंकाने वाली बात यह है कि इन परिवारों को सामने अविवाहित लड़कियां भी बड़ी संख्या में आ रही हैं, जो पैसों की खातिर बिन व्याहे मॉं बनने को भी तैयार हैं। अपना पूरा भविष्य दांव पर लगाने तैयार कुछ ऐसी ही कुछ लड़कियों से जब सेंटर स्टाफर बनकर बातचीत की गई तो कई बातें बड़ी बेबाकी से सामने रखीं। उनका सीधा कहना है कि भविष्य की कोई गारंटी नहीं है। आज हमें कुछ महीनों में ही दो लाख रुपए तक मिल रहे हैं, वो भी बगैर कोई गलत कदम उठाए तो फिर इसमें हर्ज क्या है। राजधानी में बीई की पढ़ाई कर रही इंदौर की शिल्पा (परिवर्तित नाम) कहती है कि पापाजी की डेथ हो चुकी है। मॉं भी मानसिक रूप से अस्वस्थ हैं। दो भाई हैं जिन्हें मुझसे कोई सरोकार नहीं है। पढ़ाई के लिए तो पापा ने भेजा था। हमने एज्यूकेशन लोन लिया था। पापा मेरे नाम कुछ फिक्स डिवाजिट भी किए थे। दो साल पहले पापा की डेथ हो गई, तब से मैं सारे फैसले खुद ही ले रही हूं। अपने भविष्य को लेकर ही मैं फ्लैट लेना चाहती हूं। लिहाज उसने सरोगेट मदर बनकर फ्लैट के लिए रुपए जुटाने का फैसला किया है। बैतूल की तान्या (परिवर्तित नाम) भोपल में रिसेप्शनिस्ट है। वह चाहती है उसकी खुद की कार हो, लेकिन परिवारिक परिस्थितियां और सेलरी से यह सपना पूरा नहीं हो सकता। तान्या ने कार लेने के लिए अब सरोगेट मदर बनने का रास्ता चुना है। मिसरौद की विभा (परिवर्तित नाम) की बचपन में शादी हो गई। गौने से 3 महीने पहले ही पति ने दूसरी शादी कर ली। अब वह आत्मनिर्भर होना चाहती है, लेकिन इसमें गरीबी आड़े आ रही है। विभा ने इसके लिए सरोगेट मदर बनने का रास्ता चुना।
रायसेन की भूमि (परिवर्तित नाम) के माता-पिता की मृत्यु हो गई। अब वह गोविन्दरपुरा के एक ऑफिस में रिशेपनिस्ट है। उसे प्यार में धोखा मिला अब भूमि ने आत्मनिर्भर होने के लिए सरोगेट मदर बनने का निर्णय लिया है। जब उससे यह पूछा गया कि क्या उसे ऐसा करने में समाज से डर नहीं लगता है तो उसने कहा कि जब मुझे भूख लगती है तो कोई पुछने नहीं आता ऐसे में डरे किससे। क्या उस समाज से डरूं जिसके डर से इन दिनों कई लड़कियां सर्जरी की मदद से कौमार्य हासिल कर रही हैं। यहां तक कि कुछ तो डॉक्टर से वर्जिनिटी सर्टिफिकेट भी मांगती हैं। शादी के वक्त लड़की का गोरा रंग, दुबला शरीर और ऊंचा कद तो मायने रखता ही है, पर हमारे समाज में सबसे ज्यादा जरूरी है उसका अनछुई होना। शादी की रात ही यह जान कर कि दुलहन वर्जिन नहीं है, अपनी पत्नी को तलाक दे देना कोई नई बात नहीं है। या यह जानने के बाद कि पत्नी का कभी किसी और से भी संबंध रहा है, उसे शारीरिक और मानसिक रूप से प्रताडि़त करना भी कोई नई बात नहीं है। अपने सपनों में अनगिनत लड़कियों को नोचता हुआ, चीरता हुआ यह शरीफ मर्द आंचल में ढंकी बीवी की ख्वाहिश करता है। शादी से पहले किसी के साथ शारीरिक संबंध बनाया तो आप बदचलन हैं। आपका करैक्टर आपकी वर्जिनिटी पर आधारित है। हमारे देश में औरत की वर्जिनिटी को उसकी इज्जत कहा जाता है। शायद इसीलिए कोई वहशी किसी लड़की से बलात्कार करता है तो वह आत्महत्या कर लेती है। अगर लड़की ऐसा न भी चाहे तो समाज उसके साथ इतनी हिकारत से पेश आता है कि उसके सामने कोई चारा नहीं होता।
कुछ लड़कियों से जब यह पूछा कि अगर बिन व्याहे मॉं बनने के बात समाज के सामने आ जाती है तो फिर आपके भविष्य का क्या होगा। इसके जवाब में सभी का एक जैसा नजरिया था, कि फैसला हमारा अपना है इसलिए वे भविष्य की हर परेशानी के लिए भी पूरी तरह से तैयार हैं।
टेस्ट ट्यूब बेबी सेंटर के एक संचालक कहते हैं कि कोख किराए से देने वाली महिलाओं का आंकड़ा बढऩे के पीछे वजह इनके लिए उपलब्ध मार्केट है। वहीं उच्चवर्ग की महिलाएं अपने फिगर को मेंटेन रखने, गर्भपात होने से पैदा होने वाली परेशानियों से बचने सरोगेट मदर की मदद लेना ज्यादा बेहतर समझती हैं। ये महिलाएं झूठी मेडिकली परेशानियों का बहाना बनाकर इस सरोगेट मदर्स का सहारा लेने की भरसक कोशिश करती हैं। वे कहते हैं कि गर्भधारण का अनुभव प्रमाणसहित होना जरूरी है। इसके लिए विवाहित होने की बाध्यता नहीं है। अविवाहित लड़िकयां भी गर्भधारण का अनुभव होने पर सरोगेट मदर बन सकती हैं। विवाहिता के पति की अनुमति जरूरी है। अविवाहिता और तलाकशुदा के लिए केवल उसकी अपनी मर्जी ही काफी है। जबकि तलाक के लंबित मामलों में महिला कोख किराए पर नहीं दे सकती। महिला को ऐसी कोई बीमारी न हो जिसके बच्चे में स्थानांतरित होने की संभावना हो और उसकी उम्र 21 से 45 साल के बीच हो।
यह तो रही कोख किराए पर देने वालों की दास्तान। यही कुछ हाल है शुक्राणु और अंडाणु बेचने वालों का। बताया जाता है कि बेहतर गुणवत्ता वाले शुक्राणु और अंडाणुओं की विदेशों में अच्छी-खासी कीमत मिल रही है। नीली आंखों वाली लड़़कियों के अंडाणुओं की कीमत सबसे अधिक है। वहीं उच्च वर्ण, गोरा रंग और लंबाई वाले लड़़कों के शुक्राणुओं का बाजार तेजी पकड़़ रहा है। वैसे देश के महानगरों में भी इसका चलन जोर पकड़़ रहा है, लेकिन फर्टीलिटी टूरिज्म के जरिए विदेशों में निशुल्क घूमने-फिरने और रहने का बोनस पैकेज युवाओं को ज्यादा लुभा रहा है। दिल्ली-एनसीआर के कई प्रजनन केंद्रों ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि उनके यहां दिल्ली विश्वविद्यालय की कई लड़़कियां अपने अंडे का दान करने आती हैं और बदले में उनको अच्छी रकम भी मिल जाती है। ब्रिटेन जैसे देशों में भारतीय युवाओं के शुक्राणु और अंडाणु देने के एवज में 30 हजार डॉलर तक मिल रहे हैं। वैसे ब्रिटेन में शुक्राणु और अंडाणु दान करने वाले लोगों को अब 800 पौंड देने का प्रावधान किया है। लेकिन ब्रिटिश दंपतियों में भारतीय नस्ल के बढ़़ते क्रेज को देखते हुए इसकी कीमत इससे कहीं ज्यादा है । ह्युमन फर्टीलिटी एंड एम्ब्रियोलॉजी ऑथरिटी (ब्रिटेन) ने वीर्य दान करने वालों को अब ज्यादा भुगतान करने का प्रावधान किया है । इसके मुताबिक अब वीर्य दाताओं को 800 पौंड (लगभग एक लाख रुपए) मिलेंगे। पहले इसके एवज में वहां महज 250 पौंड का भुगतान किया जाता था। ब्रिटेन जैसे देशों में महिलाओं में बांझपन व पुरुषों में नपुंसकता दर ज्यादा होने की वजह से उनके अंडाणु और शुक्राणु इनविट्रो फर्टीलिटी तकनीक (आईबीएफ) के लिए उपयुक्त नहीं रहे हैं। चूंकि भारत एक सम-शीतोष्ण देश है इसलिए यहां के युवा प्रजनन के लिए अधिक उपयुक्त माने जाते हैं। लेडी हार्डिंग अस्पताल में स्त्री एवं प्रसूती विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. सीमा सिंघल के कहना है कि विज्ञान के विकास ने मां-बाप बनने की संभावनाओं को बढ़़ाया है। इसकी वजह से लोग किसी भी कीमत पर अपनी सूनी गोद को हरी करना चाहते हैं। इसके एवज में वे को भी कीमत चुकाने को तैयार होते हैं, और लाभ उठाने वाले इसका लाभ उठाते हैं । इसके लिए आचार संहिता चाहिए, जो अभी नहीं है ।
आज दुनिया दो गुटों में बंट गई है। पहला वह , जो काफी हद तक तालिबानी व्यवस्था का समर्थक है। मजे की बात यह कि ये लोग खुद भी नहीं जानते कि इनकी शख्सियत कितनी दोहरी है। ये इस्लामिक फतवों के विरोधी हैं पर टीवी सीरियलों में हर वक्त साड़ी में लिपटी , पल्लू सर पर ओढ़े , रोती - सिसकती नायिका को आदर्श गृहणी मानते हैं। चार लोगों के बीच बुरके को औरत की आजादी का दुश्मन बताने वाले खुद अपनी बहुओं को घूंघट में ढांक कर रखते हैं। बेटी के कॉलेज से दस मिनट लेट घर आने पर सवालों की झड़ी लगा देने वाले भी नकाब को औरत पर जुल्म मानते हैं। दूसरी तरफ वे लोग हैं जिन्हें महिला सशक्तिकरण सिर्फ मिनी स्कर्ट में नजर आता है। इन्हें लगता है छोटे कपड़े और प्री - मैरिटल सेक्स को सपोर्ट करना ही प्रगतिशील विचारधारा है। अपने करियर को महत्त्व देने वाली महिलाओं को करियर बिच पुकारने वाले समाज में अगर कोई लड़की 18 साल की उम्र में पढ़ाई छोड़ , शादी करके मां बन जाती है तो उसे डेडिकेटेड वाइफ कहा जाता है। नकाब ओढ़ कर कांफरेंस रूम में मीटिंग करती हुई औरत को ये बैकवर्ड मानते हैं।
नारियां अब पढ़-लिख कर और अपने पैरों पर खड़े होकर स्वतंत्र हो रही हैं। वे विवाह के पीछे निहित विडंबनाओं एवं पुरुष की धूर्तताओं को समझने लगी हैं। मंगलकामना के लिए बनाए गये तमाम यातनामूलक आचारों के खोखलेपन को समझने लगी हैं। जन्म-जन्मांतर के झूठे संबंधों के निर्वाह की प्रक्रिया में इस जन्म को नरक बना देने के विधान को चुनौती देने लगी हैं। देश-विदेश में जागृत स्त्री-विमर्श नारी को उसकी मानवीय अस्मिता के प्रति सचेत कर रहा है। अत: अब दाम्पत्य जीवन में टकराहटें होने लगी हैं, तलाक की संख्या बढ़ती जा रही है। वैवाहिक संबंध टूट रहे हैं सो टूट रहे हैं। अब अनेक स्वावलंबी लड़कियां विवाह से विमुख भी हो रही हैं। वे कुछ करना चाहती हैं, कुछ बनना चाहती हैं किन्तु उन्हें लगता है कि वैवाहिक जीवन उनकी भावी प्रगति के मार्ग में व्यवधान बन जायेगा। उनकी अस्मिता दबा दी जायेगी और पुरुष तथा उसके लोगों की ताडऩा तो सहनी ही पड़ेगी। कुछ पुरुषों में भी विवाह के प्रति उदासीनता लक्षित हो रही है। वे भी परिवार के उत्तरदायित्वों से मुक्त होकर स्वतंत्र जीवन बिताना चाहते हैं। विवाह की अनिवार्यता के साथ जो धार्मिकता जुड़ी थी, उसकी व्यर्थता का बोध उन्हें होने लगा है। अत: लग रहा है कि विवाह प्रथा चरमरा रही है।
मुझे लगता है कि विवाह-प्रथा का आधार बहुत मजबूत है, उसकी परिकल्पना के पीछे बहुत गहरा चिंतन और मूल्य-दृष्टि है। आज भी इसका कोई सही विकल्प लक्षित नहीं होता। विवाह न करके मुक्त जीवन बिताना किसी भी व्यक्ति का निजी अधिकार है। लेकिन यदि सभी लोग मुक्त जीवन बिताने लगे तो सृजन परंपरा ही समाप्त हो जायेगी या जो सृजन होगा वह लावारिस होगा। जब तक हमारे समाज का मिजाज नहीं बदलता, ऐसा सृजन नाजायज माना जाएगा और अनाथालयों की शोभा बढ़ाता रहेगा। हां, यदि स्त्री-पुरुष छाती ठोक कर उस सृजन को अपना घोषित करते हैं और हमारी समाज व्यवस्था तथा कानून व्यवस्था में उसकी सम्मानपूर्ण जगह बनती हो तो कोई हर्ज नहीं। बन पायेगी क्या? तो मुझे नहीं लगता कि थोड़ी बहुत चरमराहट के बावजूद विवाह प्रथा समाप्त होगी। आवश्यकता इस बात की है कि इसकी मूल परिकल्पना की पहचान कर इसमें आयी कुरीतियों, विषमताओं और गंदगी को दूर किया जाए। यह पशुता से मनुष्यता की ओर आने वाली संस्कृति यात्रा की महत्वपूर्ण देन है। यह स्वयं पशुता के लक्षणों से भर जाये, निश्चय ही यह बहुत पीड़ादायक स्थिति है।

Saturday, August 28, 2010

भारत-चीन में युद्ध कराना चाहता है पाकिस्तान

एशिया के बाद अब पूरी दुनिया में अपनी ताकत का लोहा मनवा रहे भारत और चीन में युद्ध कराना चाहता है पाकिस्तान। इसके लिए पाकिस्तान चीन को उकसा रहा है। पाक के राजनेता जानते है कि चीन से भारत का संबंध अच्छा नहीं रहा है। यही वजह है कि पाक चीन को लगातार उकसाता रहा है। दोनों देशों के बीच 1962 से चली आ रही खटास हाल ही में विकसित हो रहे अच्छे व्यापारिक रिश्तों के बावजूद कम नहीं हो रही है।
चीन की बढ़ती ताकत और के मद्देनजर पाकिस्तान में भारत-चीन संबंध को अलग नजरिए से देखा जाने लगा है। इसमें 2017 तक भारत-चीन युद्ध की आशंका तक जताई जा रही है। पाकिस्तान इन दिनों चीन से संबंध सुधारने में लगा है और भारत के साथ चीन के रिश्ते लगातार नरम-गरम रहे हैं। हाल ही में चीन ने जम्मू-कश्मीर को विवादित क्षेत्र बताते हुए वहां की कमान संभाल रहे वरिष्ठ सैन्य अफसर को वीजा तक देने से इनकार कर दिया है। इन परिस्थितियों के बीच पाकिस्तान में भारत-चीन युद्ध की अटकलों को लेकर प्रोपैगंडा चलाया जा रहा है। आधिकारिक रूप से तो इस बारे में कुछ नहीं कहा जा रहा है, लेकिन मीडिया के जरिए यह प्रोपैगंडा चलाया जा रहा है।
पाकिस्तान की न्यूज़ वेबसाइट डॉन के मुताबिक दुनिया की दो बड़ी ताकतों (भारत और चीन) के बीच टकराव तय है। तर्क है कि भारत और चीन में शांतिपूर्वक विकास के लिए विकल्प कम होते जा रहे हैं। भारत और चीन सभी स्तरों पर स्पर्धा कर रहे हैं, फिर चाहे वह आर्थिक मोर्चा हो या फिर क्षेत्रीय वर्चस्व की बात हो। यही होड़ खतरनाक नतीजे दे सकती है। हालांकि, करीब साल भर पहले भारतीय मीडिया में भी इससे मिलती-जुलती खबर आई थी। इसके मुताबिक, भारतीय सेना की खुफिया कवायद जिसे डिवाइन मैट्रिक्स का नाम दिया गया है, में चीन के साथ युद्ध का अनुमान लगाया गया है। भारतीय सेना के अफसर के हवाले से आई मीडिया रिपोर्ट में कहा गया था कि दक्षिण एशिया में एक मात्र ताकत के तौर पर खुद को स्थापित करने के लिए चीन, भारत पर हमला कर सकता है। भारतीय सेना के द्वारा किए गए आकलन में कहा गया है कि चीन इनफर्मेशन वारफेयर (आईडब्लू) के सहारे भारत को हराने की फिराक में है।
2009 में पेंटागन की ओर से जारी रिपोर्ट में भी कहा गया था कि चीन ऐसे उपकरणों और हथियारों को विकसित कर रहा है जो दक्षिण एशिया में मौजूद किसी भी देश की नौसेना और वायुसेना को बौना साबित कर देंगे। पेंटागन को आशंका है कि अगर ऐसा हुआ तो इससे क्षेत्रीय संतुलन बिगड़ जाएगा।
भारत और अमेरिका के हाल के सालों में बढ़ती नजदीकी से भी चीन चिंतित है। खास तौर से अमेरिका और भारत के बीच हुए परमाणु करार ने चीन को खासा परेशान किया है। वहीं, चीन और पाकिस्तान के बीच बढ़ती दोस्ती से भारत चिंतित है। गौरतलब है कि भारत और चीन के बीच 1962 में सीमा विवाद को लेकर एक युद्ध हुआ था, जिसमें चीन को जीत मिली थी। पेंटागन ने हाल में भी एक रिपोर्ट जारी की है, जिसके मुताबिक चीन पड़ोसी भारत से लगी सीमा पर मिसाइलें तैनात कर रहा है और अपनी वायुसेना को बहुत कम समय में भारतीय सीमा पर सक्रिय करने की तैयारी कर चुका है।
वहीं, चीन भारत के साथ युद्ध की आशंका को नकारता रहा है। चीन के जानकारों के मुताबिक चीन विकास के जिस दौर में पहुंच चुका है, वहां भारत से लड़ाई करने जैसा बेकार, महंगा और क्षेत्र की भू-राजनैतिक तस्वीर बदलने वाला कदम वह नहीं उठाएगा। चीन के जानकारों का मानना है कि भारत से युद्ध का चीन को बहुत ज़्यादा फायदा नहीं होने वाला है।
चीन भी भारत को उकसाने के लिए कोई न कोई हरकत करता रहा है। ऐसे ही कुछ मुद्दों पर एक नजऱ:
भारत की सीमा में लिख दिया चीन
भारत- चीन सीमा की वास्तविक नियंत्रण रेखा में 2008 में 270 बार चीनी घुसपैठ की घटनाएं हुई थीं। 2009 में घुसपैठ की घटनाएं बढ़ीं। 2008 के पहले छह महीने में चीन ने सिक्किम में कुल 71 बार भारतीय इलाके में चीन ने घुसपैठ की। जून, 2008 में चीन के सैनिक वाहनों के काफि़ले भारतीय सीमा से एक किलोमीटर भीतर तक आ गए। इसके एक महीने पहले चीनी सैनिकों ने इसी इलाके में स्थित कुछ पत्थर के ढांचे तोडऩे की धमकी भी दी, जिस धमकी को बाद में चीनी अधिकारियों ने दोहराया भी था।
सितंबर 2008 में लद्दाख में सीमा पर स्थित पांगोंग त्सो झील पर चीनी सैनिकों का मोटर बोट से भारतीय सीमा में अतिक्रमण नियमित रूप से चल रहा है और आज तक जारी भी है। 135 किमी लंबी इस झील का दो तिहाई हिस्सा चीन के पास है और शेष एक तिहाई भारत के पास है। कारगिल युद्ध के दौरान चीन ने इस झील के साथ-साथ पांच किमी का एक पक्का रास्ता बना लिया है, जो झील के दक्षिणी छोर तक है। यह इलाका जो भारतीय सीमा के भीतर आता है।
जून 2009 में जम्मू- कश्मीर में मौजूद वास्तविक नियंत्रण रेखा पर स्थित देमचोक (लद्दाख क्षेत्र) में दो चीनी सैनिक हेलीकॉप्टर भारतीय सीमा में नीचे उड़ते हुए घुसे। इन हेलीकॉप्टरों से डिब्बाबंद भोजन गिराए गए। जुलाई, 2009 में हिमाचल प्रदेश के स्पीती, जम्मू -कश्मीर के लद्दाख और तिब्बत के त्रिसंगम में स्थित 'माउंट ग्याÓ के पास चीनी फ़ौज सीमा से करीब 1.5 किलोमीटर भीतर आ गई। इन चीनी सैनिकों ने पत्थरों पर लाल रंग से 'चीन' लिखा। 31 जुलाई 2009 को भारत के सीमा गश्ती दल ने 'ज़ुलुंग ला र्देÓ के पास लाल रंग में चीन-चीन के निशान भी लिखे देखे। सितंबर, 2009 में उत्तराखंड मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल ने केंद्र सरकार को चमोली जिले के रिमखिम इलाके के स्थानीय लोगों से मिली चीनी घुसपैठ की जानकारी दी। इस जानकारी के अनुसार पांच सितंबर, 2009 को चीनी सैनिक भारतीय सीमा के भीतर दाखिल हुए।
अरुणाचल प्रदेश
अरुणाचल प्रदेश को लेकर चीन लगातार बयानबाजी करता रहा है। चीन ने अरुणाचल प्रदेश के तवांग इलाके को 'दक्षिण तिब्बतÓ का नाम दिया है। इसके अलावा वह अरुणाचल प्रदेश को चीन के नक्शे पर दिखाता है। चीन का दावा है कि अरुणाचल प्रदेश चीन का हिस्सा है। यही वजह है कि चीन अरुणाचल प्रदेश के लोगों को वीज़ा नहीं देता है क्योंकि चीन का तर्क है कि अरुणाचल प्रदेश के निवासी चीन के नागरिक हैं। भारत चीन के इन कदमों का विरोध करता रहा है। कुछ साल पहले चीनी सैनिकों ने बुद्ध की एक प्रतिमा को तबाह कर दिया था। इस प्रतिमा को भारत-चीन सीमा पर मौजूद बुमला नाम की जगह पर बनाया गया था। भारत के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के अरुणाचल प्रदेश दौरे का भी चीन ने विरोध किया था। इसके अलावा तिब्बती धर्म गुरु दलाई लामा की भी अरुणाचल यात्रा का चीन ने विरोध किया था। गौरतलब है कि दलाई लामा ने अरुणाचल प्रदेश की यात्रा के दौरान इसे भारत का हिस्सा बताया था।
कश्मीर का मुद्दा
कश्मीर को लेकर चीन का रवैया पाकिस्तान को खुश करने वाला है। चीन ने कई मौकों पर जम्मू-कश्मीर को विवादित इलाका बताकर भारत से खटास बढ़ाई है। जम्मू-कश्मीर के लोगों को वीज़ा जारी करते समय चीन वीजा को पासपोर्ट के साथ चिपकाने की बजाय नत्थी कर देता है। भारत नत्थी किए गए वीजा को मान्यता नहीं देता है। ऐसे में जम्मू-कश्मीर के निवासी चीन की यात्रा नहीं कर पा रहे हैं। अपने इस कदम के पीछे चीन का तर्क है कि जम्मू-कश्मीर एक विवादित इलाका है।
लोन में अड़ंगा
चीन ने अरुणाचल प्रदेश को लेकर भारत और चीन के बीच चल रहे विवाद को तीसरे मंच पर उठाने की कोशिश के तहत एशियन डेवलपमेंट बैंक (एडीबी) के सामने यह मुद्दा उठाया था। भारत ने 88 अरब रुपये के लोन के लिए आवेदन किया था, जिसका इस्तेमाल अरुणाचल प्रदेश में पीने के पानी के इंतजाम के लिए करना था। चीन का तर्क था कि चूंकि अरुणाचल प्रदेश एक विवादास्पद क्षेत्र है इसलिए यहां किसी योजना के लिए लोन नहीं दिया जाना चाहिए।
सिक्किम
चीन 2005 तक सिक्किम को भारत का हिस्सा मानने को तैयार नहीं था। चीन सिक्किम को एक स्वतंत्र देश मानता था। लेकिन 2005 में चीन ने सिक्किम को भारत का हिस्सा मान लिया। लेकिन बावजूद इस मान्यता के चीन सिक्किम में सीमा (वास्तविक नियंत्रण रेखा)का उल्लंघन करता रहा है। 2008 में सिक्किम के उत्तरी हिस्से में चीन की सेना ने घुसपैठ को अंजाम दिया, जिसका भारत ने जोरदार विरोध किया था।

Thursday, August 26, 2010

आनन्द और प्रकाश को क्यों भूल रहे हम?

देश में काफी जोर-शोर से सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न देने का अभियान छेड़ा गया, उसमें आशा भोंसले जैसी हस्तियां भी शामिल हैं। चर्चा कपिल देव और सुनील गावस्कर को भी भारत रत्न देने की उठी, लेकिन एक ध्रुव सत्य यह है कि अगर कोई भारत रत्न का सबसे ज्यादा सुपात्र है, तो वो खिलाड़ी हैं विश्वनाथ आनंद। जिसने भारतीय शतरंज जगत में मौन क्रांति की। अगर हरित क्रांति के लिए स्वामीनाथन, दुग्ध क्रांति के लिए कुरियन, तो शतरंज क्रांति के लिए अगर हम किसी एक व्यक्ति को श्रेय देंगे, तो वह विश्वनाथन आनंद हैं। जी हां, वही आनंद जिनके बारे में मानव संसाधन विकास मंत्रालय पूछता है कि आनंद कहां रहते हैं, इनकी नागरिकता क्या है। यह कितना शर्मनाक रवैया है, नौकरशाहों को यह बताने की जरूरत नहीं है।
आजादी मिले 63 साल हुए, जमाना कहां से कहां पहुंच गया। तमाम तब्दीलियां आई, लेकिन भारतीय नौकरशाही में कोई फर्क नहीं पड़ा, जैसी वह 1947 में थी, वैसी ही 2010 में भी है। सवाल नागरिकता के नाम पर आनंद को डॉक्टरेट देने से रोकने का नहीं है, सवाल तो देश की शासन या प्रशासन शैली का है, उसमे तब्दीलियों का है। हम वैश्वीकरण की बात करते हैं, हम सूचना प्रौद्योगिकी में गुरू होने का दम भरते हैं, लेकिन वास्तविकता तो यह है कि सरकारी तंत्र की कछुआ चाल मे कोई फर्क नहीं आया है। सूचना तकनीक की सुविधा विदेशियों को देने के लिए है सरकार को अपने काम के लिए शायद इसकी कोई जरूरत नहीं है। शायद यही कारण है कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने आनंद की फाइल को रोक दिया।
यह भी सच है कि शतरंज की दुनिया में आनंद के आने के पहले कौन-कहां की सूची में हम कहीं नहीं थे। गे्रंडमास्टर की तो बात दरकिनार, वह तो तब एक कभी न पूरा होने वाला ख्वाब था। मास्टर भी एक-दो ही थे, शतरंज में एक ही मास्टर का नाम सुना जाता था मेनुएल आरोन, वे अभी भी हैं, लेकिन बीते सालों में हर स्तर पर भारतीय विश्व शतरंज में छाए हुए हैं और ग्रेंडमास्टर इतने हो गए हंै कि हम उन्हें अंगुलियों पर नहीं गिन सकते। इस विकास या शतरंज क्रांति का श्रेय अगर किसी एक को दिया जा सकता है, तो वह सिर्फ विश्वनाथन आनंद हैं।
विवाद की जड़ कहां है, जड़ है आनंद का स्पेन में कई वर्षो से रहते हुए वहां अपना दूसरा ठिकाना बना लेना और भारत सरकार ने शायद इसे आनंद की सबसे बड़ी भूल मान लिया है। आखिर तभी तो उनकी नागरिकता पर प्रश्नचिन्ह लगा। जबकि सच यह है कि आनंद ने रियाज की सुविधाएं और एकाग्रचित्त होने में सहायक माहौल को देखते हुए विदेश में रहना स्वीकार किया है। इससे वे विदेशी नहीं हो गए हैं, वे भारत का ही नाम रोशन कर रहे हैं। इस संसार में ईश्वर ने अगर कुछ कम्प्यूटर-तुल्य मस्तिष्क दिए हैं, तो उनमे आनंद भी एक हैं। सुपर कम्प्यूटर को इंसानी दिमाग ने ही बनाया है, लेकिन सुपर कम्प्यूटर से जीता नहीं जा सकता। आनंद इस मिथ को भी तोड़ चुके हैं और न जाने कितने मौकों पर उन्होंने शतरंज की चालों में कम्प्यूटरों को भी मात दी है। आनंद इस दौर के एक बड़े जीनियस हैं।
मानव संसाधन विकास मंत्रालय के सौजन्य से जो अप्रिय विवाद खड़ा हुआ, वह आनंद की मनोदशा को तोड़कर रख देता, लेकिन इस विवाद से निर्लिप्त आनंद का दिमागी कम्प्यूटर अपना काम पहले की तरह ही कर रहा था और इसका सबसे बड़ा प्रमाण यही है कि जब देश में आनंद के अपमान की चर्चा हो रही थी, तब वे हैदराबाद में एक साथ 40 शतरंज खिलाडियों का सामना कर रहे थे। गणितज्ञों की कॉन्फ्रेन्स मे उनके खिलाफ 35 गणितज्ञ और इन्फोसिस के पांच चुने हुए शतरंज खिलाड़ी खेल रहे थे। मात्र एक खिलाड़ी 14 वर्षीय श्रीकर ही भाग्यशाली थे कि बाजी में आनंद के साथ बराबरी कर सके। यह घटना वास्तव मे आनंद का बड़प्पन दिखाती है। जब उनसे पूछा गया, तो उन्होंने जवाब दिया, इससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। गनीमत है बुद्धिमान मंत्री कपिल सिब्बल ने बिना किसी आडंबर या हिचक के इस शतरंज जीनियस से माफी मांग कर विवाद को खत्म करने की कोशिश की। लेकिन यह यक्ष प्रश्न आज भी मुंह बाए खड़ा है कि देश की व्यवस्था कब सुधरेगी। कब वह समय आएगा, जब देश चलाने वालों के पास देश से संबंधित पूरी जानकारी होगी, और शायद तभी हम विकसित राष्ट्र बन पाएंगे।
सचिन को भारत रत्न निश्चित रूप से मिलना चाहिए। निस्संदेह इस मास्टर-ब्लास्टर ने देश के खेल प्रेमियों को आनंद के असंख्य क्षण पिछले 20 वर्षो में प्रदान किए हैं। लेकिन 1980 के दशक में बैडमिंटन में धूमकेतु की तरह चमके प्रकाश पादुकोण, जिन्हें बैडमिंटन का शायद ही कोई अंतरराष्ट्रीय तमगा न मिला हो। मुझे याद है 1980 मे प्रकाश खाली झोली के साथ देश के बाहर निकले थे और जब लौटे, तो झोली में तिल धरने की जगह नहीं थी, वह उपाधियों से भरी पड़ी थी। मुंबईवासियों ने उनका जो स्वागत किया था, उसे कौन भूल सकता है किसी खिलाड़ी विशेष का ऐसा स्वागत पहली और अंतिम बार हुआ था। लेकिन लोगों की याददाश्त बहुत कमजोर होती है, बहुतेरे लोग आज प्रकाश को अभिनेत्री दीपिका पादुकोण के पिता के रूप में ज्यादा जानते हैं और शायद यही हमारे खेलों की सबसे बड़ी विडंबना भी है।
आज हम क्रिकेट की चर्चा ज्यादा करते हैं और इसको लेकर कोई ईष्र्या भी नहीं है, इसलिए नहीं है कि टेलीविजन पर दिनभर क्रिकेट मैचों का प्रसारण होता है, विज्ञापन मिलता है, तभी तो होता है। यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं है कि देश में शतरंज को टीवी का खेल बनाने की कोशिश नहीं की गई है। लेकिन टीवी पर शतरंज के न छाए होने से उसकी लोकप्रियता कम नहीं हुई है, उसकी लोकप्रियता क्रिकेट से कम नहीं है। हमारा देश क्रिकेट प्रतिभाओं की खान है या नहीं, यह एक लंबी बहस या विवाद का विषय हो सकता है, लेकिन भारत जिसे शतरंज का जन्मदाता भी कहा जाता है, यह शतरंज की बेशकीमती खान है। इसका कोई प्रमाण देने की जरूरत नहीं है।

अधकचरी कहानी में दफन भोपाल कांड

जब से भोपाल गैस मामले में अदालत ने अपना फैसला सुनाया है और मीडिया ने इस तथ्य को उजागर किया कि केंद्र की तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने यूनियन कार्बाइड के चेयरमैन वारेन एंडरसन के साथ शाही व्यवहार किया तभी से कांग्रेस पार्टी पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी को बचाकर दूसरे लोगों पर जिम्मेदारी थोपने के अपने पुराने खेल पर उतर आई है। कांग्रेस की कोशिश हरसंभव तरीके से यह साबित करने की है कि भोपाल गैस मामले में दोषियों को बच निकलने का अवसर देने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी जिम्मेदार नहीं थे। कांग्रेस के लिए पसंदीदा निशाना पीवी नरसिंह राव हैं, जो बौद्धिक और साथ ही प्रशासनिक रूप से राजीव गांधी से कहीं अधिक श्रेष्ठ थे। जिन लोगों ने कांग्रेस की इस मुहिम में मदद की है और इस प्रकार नेहरू-गांधी परिवार को उपकृत किया उनमें मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह और पूर्व विदेश सचिव एमके रसगोत्रा शामिल हैं। अर्जुन सिंह ही भोपाल गैस कांड के समय मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। अर्जुन सिंह के अनुसार दिसंबर 1984 में भोपाल में भयानक गैस लीक होने के तत्काल बाद उन्हें यह सुनकर धक्का लगा कि वारेन एंडरसन इस त्रासदी के पीडि़तों के प्रति संवेदना-सहानुभूति प्रकट करने खुद ही भोपाल आ रहा है। उन्होंने तत्काल ही एंडरसन की गिरफ्तारी के आदेश दिए, लेकिन इस मसले पर राजीव गांधी से उनकी कोई बातचीत नहीं हुई, जो उसी दिन भोपाल आए थे। अगले दिन एक जनसभा में उनकी राजीव गांधी से फिर मुलाकात हुई, लेकिन यहां भी प्रधानमंत्री ने एंडरसन के बारे में कोई पूछताछ नहींकी। इसी बीच केंद्रीय गृह मंत्रालय के कुछ अज्ञात अधिकारियों ने मध्य प्रदेश के मुख्य सचिव को टेलीफोन कर एंडरसन को छोड़ देने के लिए कहा। मुख्य सचिव ने यह बात अर्जुन सिंह को बताई और एक दिन पहले एंडरसन को सलाखों के पीछे भेजने का आदेश देने वाले अर्जुन सिंह ने उसे छोड़ देने की अनुमति दे दी। अर्जुन सिंह ने यह जानने के लिए केंद्रीय गृह मंत्री नरसिंह राव को एक फोन भी करने की जरूरत नहीं समझी कि क्या वह वास्तव में चाहते हैं कि एंडरसन को छोड़ दिया जाए और क्या उन्होंने अपने यहां के किसी अधिकारी को एंडरसन को छोड़ देने के लिए फोन करने के लिए कहा था? हैरत की बात है कि अर्जुन सिंह ने इस मामले में केंद्रीय गृह मंत्रालय के हस्तक्षेप के संदर्भ में प्रधानमंत्री से शिकायत करना भी जरूरी नहींसमझा। अर्जुन सिंह के बयान से स्पष्ट है कि उन्होंने गृह मंत्रालय के एक अज्ञात अधिकारी के टेलीफोन के आधार पर ही एंडरसन को बच निकलने का मौका दे दिया। इसके अतिरिक्त यह भी सबको पता है कि वारेन एंडरसन के प्रति अर्जुन सिंह के कथित सख्त रवैये के बावजूद एंडरसन से राजकीय अतिथि जैसा व्यवहार किया गया। उसे किसी मजस्ट्रिेट के सामने भी पेश नहींकिया गया, बल्कि मजिस्ट्रेट को उसके सामने हाजिर किया गया। तथ्य यह है कि मजिस्ट्रेट को गेस्ट हाउस ले जाया गया ताकि एंडरसन को जमानत पर छोड़ा जा सके। इसके बाद अर्जुन सिंह ने एंडरसन को दिल्ली ले जाने के लिए सरकारी हेलीकाप्टर भी मुहैया कराया। इसके बाद भी अर्जुन सिंह हम सभी को यह समझाना चाहते हैं कि हेलीकाप्टर की व्यवस्था उनकी जानकारी अथवा सहमति के बिना की गई-बावजूद इसके कि दस्तावेज में उनके आदेश का जिक्र है। लॉग बुक में लिखा है-मुख्यमंत्री के निर्देश पर विशेष उड़ान। कोई मुख्यमंत्री इससे अधिक गैर-जिम्मेदार कैसे हो सकता है? अर्जुन सिंह के इस बयान से हमें यह भी पता चलता है कि नेहरू-गांधी परिवार की छवि पर कोई आंच न आने देने के लिए सच्चाई का गला घोंटने और इतिहास को झूठा सिद्ध करने में कांग्रेस के नेता किस हद तक जा सकते हैं? भोपाल गैस मामले में अर्जुन सिंह के इस बयान को मई 2008 में नेहरू-गांधी परिवार के प्रति निष्ठा व्यक्त करते हुए दिए गए उनके बयान के परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए। तब उन्होंने कहा था कि जब मैं मार्च 1960 में जवाहर लाल नेहरू जी से मिला तब मैंने उनके और उनके परिवार के प्रति अपनी पूर्ण निष्ठा की शपथ ली। अपने जीवन के पिछले 48 वर्र्षो में मैंने पूरी तरह इसका पालन किया। मैं अपने बाकी जीवन में इस निष्ठा और प्रतिबद्धता को बरकरार रखने के लिए सब कुछ करूंगा। नेहरू-गांधी परिवार के प्रति इतनी स्वामिभक्ति प्रदर्शित करने में कांग्रेस पार्टी के नेता अकेले नहीं हैं। अनेक नौकरशाह और कूटनीतिज्ञ भी एक राजनीतिक परिवार अथवा राजनीतिक दल के प्रति अपनी वफादारी में इतना आगे बढ़ जाते हैं कि खुद को ही फंसा बैठते हैं। पूर्व विदेश सचिव एमके रसगोत्रा भी ऐसे ही एक नौकरशाह हैं, जो सेवानिवृत्ति के बाद कांग्रेस पार्टी के विदेशी मामलों के सेल के सदस्य बन गए। उन्होंने एक साक्षात्कार में एंडरसन की रिहाई के मामले में अजीब जवाब दिए। जब उनसे पूछा गया कि क्या राजीव गांधी से सलाह ली गई थी? उन्होंने जवाब दिया-राजीव गांधी दिल्ली में नहीं थे। फिर उनसे पूछा गया कि क्या रीगन ने राजीव गांधी को फोन किया था? रसगोत्रा ने कहा-हो सकता है। एक अन्य सवाल के जवाब में रसगोत्रा ने कहा कि नई दिल्ली में अमेरिकी दूतावास के उप प्रमुख गार्डन स्ट्रीब ने उनसे कहा था कि एंडरसन भारत आने के लिए तैयार है, बशर्ते उसे सुरक्षित वापस जाने दिया जाए। चूंकि एंडरसन की भोपाल यात्रा इस शर्त से बंधी थी, इसलिए रसगोत्रा ने कैबिनेट सचिव और गृह मंत्री से संपर्क किया। कैबिनेट सचिव ने एंडरसन की रिहाई की अनुमति दी। रसगोत्रा गृह मंत्रालय के भी संपर्क में थे। राजीव गांधी उस समय वहां नहीं थे, इसलिए प्रधानमंत्री से बात करने का अवसर नहीं आया। रसगोत्रा का कहना है कि राजीव गांधी का इससे कोई लेना-देना नहीं है। यह कितनी असाधारण बात है? दिसंबर 1984 में भारत का विदेश सचिव रहा व्यक्ति बता रहा है कि अमेरिकी दूतावास के उपप्रमुख को एंडरसन के सुरक्षित वापस जाने का आश्वासन दिया गया था। इसलिए अपनी गिरफ्तारी के बाद एंडरसन ने गृह मंत्री (राव) से संपर्क किया और उसकी रिहाई हो गई। गृह मंत्री ने एक बार भी अपने बॉस यानी प्रधानमंत्री राजीव गांधी से बात नहींकी, जिनके पास विदेश मंत्रालय भी था। हमारे विदेश सचिव ने भी भोपाल गैस कांड जैसे अत्यंत महत्वपूर्ण मामले के मुख्य अभियुक्त से जुड़े मसले पर अपने बॉस यानी राजीव गांधी से बात करने की जरूरत नहीं समझी। इसलिए कि राजीव गांधी उस समय दिल्ली में नहीं थे। इस तथ्य पर भी गौर करें कि अमेरिकी राष्ट्रपति रीगन ने संभवत: राजीव गांधी से बात की थी और इसकी जानकारी हमारे विदेश सचिव को नहीं थी। क्या कोई इन तथ्यों पर भरोसा कर सकता है? यदि यह सब वाकई सत्य है तो क्या हमें अपने विदेश सचिवों की काबिलियत पर चिंतित नहीं होना चाहिए? हमें अंदाज लगा लेना चाहिए कि हमारी सेवाओं का स्तर कितना गिर गया है कि एक विदेश सचिव बड़ी गंभीरता से यह सोचता है कि वह जो अधकचरी कहानी सुना रहा है उस पर देश की जनता भरोसा कर लेगी।

अपनी महिला साथियों से रेप करते हैं नक्सली

सरकारी शोषण के खिलाफ हथियार उठाने वाले नक्सली अपनी ही महिला मेंबर्स का यौन शोषण करते हैं। इसका खुलासा किया है पश्चिम बंगाल और झारखंड के जंगलों में कभी एरिया कमांडर रह चुकी शोभा मांडी (23) उर्फ उमा उर्फ शिखा ने। हालांकि इस तरह के खुलासे पूर्व में भी कई महिला नक्सलियों ने किया है। जिससे सामाजिक बराबरी और नैतिकता की बात करने वाले नक्सलियों पर अब बलात्कारी होने का आरोप लगा है। 25-30 लोगों का एरिया कमांडर रही शोभा चार महीने पहले डॉक्टर से इलाज करवाने के बहाने नक्सलियों के चंगुल से निकल भागी।
पश्चिम बंगाल और झारखंड के जंगलों में कभी एरिया कमांडर रह चुकी शोभा मांडी (23) उर्फ उमा उर्फ शिखा ने आपबीती सुनाई। शोभा ने बताया कि नक्सली ग्रुप जॉइन करने के एक साल बाद संतरी के रूप में मुझे झारखंड के जंगल में लगे कैम्प की रखवाली के लिए लगाया गया। एक रात बिकास (हेड,मिलिट्री कमीशन) ने मुझसे पानी मांगा। जब मैं पानी लाने जाने लगी तो वह मेरा हाथ पकड कर मेरे साथ जबर्दस्ती करने लगा। शोभा ने बताया कि जब उसने बिकास से ऐसा करने से मना किया तो वह उसे जान से मारने की धमकी देने लगा। जोर जबर्दस्ती के बाद शोभा टूट गई और बिकास ने उसके साथ रेप किया। यह घटना तब की है जब शोभा 17 साल की थी। शोभा ने कहा कि जितनी भी महिला नक्सली हैं उनमें से अधिकतर महिलाओं का शोषण सीनियर माओवादी करते हैं। उनका कई-कई नक्सली महिलाओं के साथ सेक्सुअल रिलेशन है। अगर कोई महिला गर्भवती हो जाती है तो उनका अबॉर्शन करवा दिया जाता है क्योंकि बच्चों को बोझ समझा जाता है।
7 साल तक नक्सल कैडर रह चुकी शोभा से पूछा गया कि उन्होंने नक्सलवादियों से अलग होने का क्यों मन बनाया? सवाल पर थोडी मायूस शोभा ने कहा कि जिन मुद्दों को लेकर नक्सली लड़ाई लड़ते हैं, उन्हीं मुद्दों के साथ वे अन्याय करते हैं। कैडर की हैसियत से मैं कुछ नक्सली नेताओं की करतूतों को किशनजी से बताती थी। यही बात कुछ कॉमरेडों को पसंद नहीं थी। वे लोग ग्रुप के बाकी सदस्यों को मुझसे बात करने से मना कर देते थे। मैं बिल्कुल अलग-थलग पड़ जाती थी। वे लोग हमेशा मुझे धमकी देते रहते थे।
यह पूछे जाने पर कि वह नक्सली नेताओं को क्यों पसंद नहीं करतीं? शोभा की आंखों में खौफ उतर आया।
इस घटनाक्रम से अब लगले लगा है कि अपने महिला कैडरों के प्रति नक्सलियों का रवैया बदल रहा है? उड़ीसा में हाल में पुलिस के सामने हथियार डालने वाली नक्सली महिलाओं के आरोपों से भी इस तथ्य को बल मिलता है। उन महिलाओं ने विभिन्न नक्सली शिविरों में बड़े नेताओं पर यौन शोषण के आरोप लगाए हैं। उड़ीसा के रायगढ़ जिले की लक्ष्मी पीड़ीकाका हो या क्योंझर जिले की सविता मुंडा, सबके आरोप एक जैसे हैं। नक्सली शिविरों में आए दिन होने वाले यौन शोषण के चलते नक्सली आदर्शों से इन महिलाओं का मोहभंग हो गया है। सीपीआई (माओवादी)के चिल्ड्रेन स्क्वॉड की 17 साल की एक मेंबर ने बताया कि कॉमरेडों ने उसके साथ गैंग रेप करके उसे तड़पता हुआ छोड़ दिया था। वह अचेत अवस्था में गांव वालों को मिली तो उसे तुम्बागड़ा हॉस्पिटल में इलाज के लिए भर्ती कराया गया। इसकी सूचना मिलते ही लातेहार पुलिस भी वहां पहुंच गई और फिर उसने जुल्म की कहानी बयां की सब सन्न रह गए।
उसने बताया कि सब-जोनल कमांडर दिवाकर जी स्क्वॉयड के एक मेंबर बिरेंद्रजी ने संगठन जॉइन करने के कुछ ही दिनों बाद उसके साथ जोर-जबरदस्ती की थी। लड़की ने आगे बताया, मैं पांच साल पहले संगठन के साथ जुड़ी थी लेकिन बाद में इससे अलग होना चाह रही थी। एक बार मैं स्क्वॉड से भाग गई और अपने एक रिश्तेदार के यहां छिप गई। लेकिन कुछ ही महीने बाद सब-जोनल कमांडर चंदन और छोटू बंदूक के बल पर मुझे वापस ले आए। इसके बाद मेबरों ने कई बार मेरे साथ गैंगरेप किया। उसने बताया, मैंने फिर भागने की कोशिश की लेकिन उनलोगों ने पीछा करके मुझे पकड़ लिया। मुझ पर आरोप लगाया गया कि मैं हथियार लेकर भाग रही थी। इनकार करने पर मेरी लाठी-डंडे से जबरदस्त पिटाई की और रेप करने की भी कोशिश की, लेकिन मेरे बेहोश होने के कारण वे चले गए। 17 साल की लक्ष्मी 14 साल की उम्र में संगठन में शामिल हुई थी। वह कहती है, मैं एक उडिय़ा व्यक्ति से शादी करना चाहती थी, लेकिन संगठन के लोग मेरी शादी जबरन छत्तीसगढ़ के एक हिंदी भाषी व्यक्ति से करना चाहते थे। हम दोनों एक-दूसरे की भाषा तक नहीं समझते थे। नेताओं को डर था कि शादी के बाद मैं संगठन छोड़ सकती हूँ।
वह कहती है कि शिविरों में रात को बड़े नेता दुर्व्यव्हार करते थे। लक्ष्मी ने तीन साल के दौरान कई बड़े अभियानों में हिस्सा लिया था। रायगढ़ के पुलिस अधीक्षक अनूप कृष्ण बताते हैं कि लक्ष्मी कई अभियानों में हिस्सा ले चुकी है। पूछताछ के बाद इस मामले में और खुलासा होने की उम्मीद है। झारखंड की सीमा से सटे क्योंझर जिले में हथियार डालने वाली सविता मुंडा की कहानी भी लक्ष्मी से मिलती है। वह बताती है कि शिविरों में हमारा शारीरिक शोषण होता था, मैंने जब संगठन के बड़े नेताओं को इस बात की जानकारी दी तो उन्होंने मुझे मुँह बंद रखने की सलाह दी। उसके बाद ही मैंने सरेंडर करने का फैसला किया। सविता की साथी अंजु मुर्मू को तो यौन शोषण की वजह से दो बार गर्भपात कराना पड़ा। क्योंझर की मालिनी होसा और बेला मुंडा की कहानी भी लगभग ऐसी ही है।
दो-तीन साल में ही नक्सली आदर्शों से इन सबका भरोसा उठ गया। नक्सली शिविरों में महिलाओं की ऐसी हालत तब है जब संगठन में उनकी तादाद सैकड़ों में हैं और वे पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिला कर खतरनाक अभियानों को अंजाम देती रही हैं।अगर इन महिलाओं के आरोपों में जरा भी सच्चाई है तो यह खुलासा नक्सिलयों के लिए घातक साबित हो सकता है। इससे उनकी साख पर बट्टा तो लगेगा ही, ग्रामीण इलाकों में पिछले दिनों में उन्होंने जो जनाधार बनाया है वह भी खत्म हो सकता है।

Wednesday, August 25, 2010

करोड़पतियों का भुक्खडऩाच

भारत अनेकता में एकता का देश है। यह तथ्य पूरा विश्व जानता है लेकिन यह बात मुझे और बेहतर ढ़ंग से तब समझ में आई जब हमने संसद में अलग-अलग स्वर में अलाप करने वाले सांसदों को एक स्वर में एक ही मसले पर एक साथ चिल्लाते देखा। वह मसला था स्वयं के वेतन-भत्तों की बढ़ोत्तरी का। हद तो यह कि सांसदों ने अपने वेतन बढ़ोत्तरी का मामला उस समय उठाया जब आधा देश सूखे और आधा बाढ़ से त्राहिमाम कर रहा था। आलम तो यह देखिए कि एक तरफ सूखे की मार झेल रहे झारखंड के एक गांव के करीब 2000 किसान इच्छा मृत्यु की इजाजत मांग रहे थे वहीं 6600 मीट्रिक टन अनाज गोदाम के अभाव में सड़ रहा था। ऐसी विकट स्थिति में देश की करीब सवा करोड़ आबादी की चिन्ता छोड़ सांसद अपने वेतन-भत्तों के लिए कोहराम मचाए हुए थे।
आखिरकार वेतन बढ़ाने को लेकर बच्चों की तरह जिद कर रहे सांसदों का वेतन 16 हजार से बढ़ाकर 50 हजार कर दिया गया। वेतन के अलावा सांसदों को मिलने वाले भत्तों और पेंशन में भी बढोतरी को मंजूरी मिल गई है। सांसदों की पेंशन को भी 8 हजार से बढाकर 20 हजार करने का प्रस्ताव मंजूर हो गया है। यही नहीं जो सांसद पांच साल से ज्यादा का कार्यकाल पूरा कर चुके हैं उन्हें पांच साल के बाद अतिरिक्त कार्यकाल के लिए पेंशन के तौर पर हर साल 1500 रूपए अधिक दिए जाएंगे। सांसदों को मिलने वाले भत्तों मे भी भारी इजाफा होने का प्रस्ताव मंजूर कर लिया गया है। सांसदों का दैनिक भत्ता एक हजार रूपए से बढाकर 2 हजार रूपए कर दिया गया है। सांसदों को प्रतिमाह 20,000 रुपए संसदीय क्षेत्र भत्ता और 20,000 रुपए कार्यालय भत्ता मिलता है। इन भत्तों को दोगुना किया गया था और अब सरकार ने इनमें पांच-पांच हजार रुपए की अतिरिक्त वृद्धि करने का फैसला किया है। सांसदों को आने जाने में मंहगाई का असर महसूस न हो इसके लिए यात्रा भत्ता एक लाख रूपए से बढ़ाकर 4 लाख रूपए सालाना कर दिया गया है। रोड माइलेज अलाउंस भी 13 रूपए प्रति किलोमीटर से बढाकर 16 रूपए प्रति किलोमीटर कर दिया गया है। वहीं, सांसद अब पत्नी सहित रेलवे के फर्स्ट क्लास एसी में असीमित मुफ्त में यात्रा कर सकते हैं। इसके साथ ही पत्नी के साथ बिजनेस क्लास में 34 मुफ्त हवाई यात्रा करने का लाभ सांसदों को दिए जाने पर कैबिनेट ने मुहर लगा दी है। लेकिन इतना मिलने के बाद भी सांसद संतुष्ट नजर नहीं आ रहे हैं और अपनी गरीबी का रोना-रो रहे हैं। घर में अमीर और संसद में गरीब सांसदों की संपति के आंकड़ों पर नजर डाले तो हमें एहसास होता है कि हमारे माननीय कितने गरीब (अमीर) हैं। आंकड़ों के अनुसार सांसदों में 315 करोड़पति हैं और उनमें से सबसे ज्यादा 146 कांग्रेस के हैं। ज्ञान, चरित्र, एकता वाली भाजपा के 59 सांसद करोड़पति हैं। समाजवादी पार्टी के 14 सांसद करोड़ का आंकड़ा पार कर चुके हैं। दलित और गरीबों की पार्टी कहीं जाने वाली बहुजन समाज पार्टी के 13 सांसद करोड़पति हैं। द्रविड़ मुनेत्र कडगम के सभी 13 सांसद करोड़पति हैं। कांग्रेस में प्रति सांसद औसत संपत्ति छह करोड़ हैं जबकि भाजपा में साढ़े तीन करोड़ है। देश के सारे सांसदों को मिला लिया जाए तो कुछ को छोड़ कर सबके पास कम से कम साढ़े चार करोड़ रुपए की नकदी या संपत्तियां तो हैं ही। यह जानकारी किसी जासूस ने नहीं निकाली गई अपितु खुद सांसदों ने चुनाव आयोग के नियमों के अनुसार इस संपत्ति का खुलासा किया है। यह तो रही हमारे करोड़पति माननीयों के भुक्खडऩाच की कहानी जब की असल भारत की कहानी सरकार द्वारा गठित अर्जुन सेन गुप्ता समिति कहती है।
सांसदों के वेतन भत्तों पर संसद के भीतर और बाहर बहस मची हुई थी तो दूसरी गरीबी और गरीबों का पता लगाने के लिए सरकार द्वारा गठित कोई आधा दर्जन समितियां अपनी रिपोर्ट सरकार को दे चुकी है लेकिन गरीबी और गरीबों की संख्या का सवाल अब भी पहेली बनकर खड़ा हुआ है। अर्जुन सेन गुप्ता समिति के अनुसार देश में 78 प्रतिशत लोग दिन भर में बीस रुपए से भी कम में गुजारा करते हैं। यूएनडीपी की एक रिपोर्ट के अुनसार देश के आठ राज्य ऐसे हैं जहां 42 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं। विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार भारत के कई क्षेत्रों में गरीबी की स्थित सब-सहारा अफ्रीका से भी खराब है। देश को सबसे अधिक प्रधानमंत्री देने वाले उत्तर प्रदेश में 70 प्रतिशत लोग गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। देश में गरीबों की पहचान और गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों की संख्या और निर्धारण को लेकर सरकार से लेकर संसद तक भारी विरोधाभाष हैं। देश के सांसदों को भी नहीं पता कि देश में कितने गरीब है।
भारत की तुलना किन अर्थो में आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, जापान, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, कनाडा, सिंगापुर और संयुक्त राज्य अमेरीका से की जा सकती है? क्या इन देशों में भारत की तरह गरीबी, अशिक्षा, भुखमरी, बेरोजगारी और कुपोषण है? जिन देशों के सांसदों का वेतन भारत के सांसदों के वेतन से कई गुना अधिक है वे देश पिछड़े और अविकसित नहीं हैं। भारत में राजनीति का पेशा और व्यवसाय बनना नव उदारवादी अर्थव्यवस्था के दौर में अधिक हुआ है।
ऐसे में आज कितने सांसदों को वास्तविक अर्थो में जनप्रतिनिधि कहा जा सकता है? सांसदों के वेतन-भत्ते में वृद्धि का प्रश्न कितना नैतिक और उचित है? अस्सी करोड़ जनता की दैनिक आय मात्र दो दहाई है। क्या सचमुच भारतीय सांसदों को इस सामान्य जनता से कोई सरोकार है? 1984 तक सांसदों का वेतन 500 रुपये प्रतिमाह था और दैनिक भत्ता मात्र 51 रुपये। यह राशि एक उप समाहर्ता के वेतन से कम थी। उस समय तक किसी भी सांसद को आज के सांसदों की तरह चिंता और शिकायत नहीं थी। अब सचिव से एक रुपया अधिक वेतन (80,001) की मांग का क्या औचित्य है? क्या सांसद नौकरी करते हैं? वेतन के अतिरिक्त उन्हें जितनी सुविधाएं प्राप्त हैं, क्या उतनी ही सुविधा सचिवों को प्राप्त है? एक दिन के लिए भी सांसद बन कर, जीवन भर पेंशन प्राप्त करते हैं, ऐसी सुविधा किस नौकरी में है? सभी नौकरियों में एक निश्चित अवधि तक कार्य करने के बाद ही पेंशन दी जाती है। नौकरी करने वालों की जिम्मेदारियां तय है। सांसदों की जिम्मेदारियां क्या हैं? नौकरी करने की एक आयु सीमा तय है जबकि सांसदों के लिए अधिकतम आयु सीमा निर्धारित नहीं है। सांसदों को दिये जाने वाले भत्तों पर कोई आयकर नहीं लगता।
नौकरशाहों से सांसदों की अपनी तुलना करना एक प्रकार का पतन है। भारतीय राजनीति का चरित्र पूर्णत बदल गया। अस्सी के दशक से राजनीति व्यवसाय बन गयी। नब्बे के दशक से राजनीतिज्ञ स्व-चिंता में लीन हुए। सरकारी अफसरों, न्यायाधीशों, संपादकों, डॉक्टरों, इंजीनियरों, प्रोफेसरों आदि के वेतन से सांसदों के वेतन की तुलना नहीं की जा सकती। भारत जैसे देश में, किसी भी क्षेत्र में कार्यरत लोगों का वेतन अधिक नहीं होना चाहिए। सांसदों को उदाहरण पेश करना चाहिए। वे न शारीरिक श्रम करते हैं, न मानसिक। किसानों की आत्महत्या से उन्हें कोई चिंता नहीं है। देश के अनेक जिले सूखाग्रस्त घोषित हो चुके हैं। सदन में तमाम बहसों और हल्ला-हंगामों के बावजूद महंगाई घट नहीं रही है और सांसद अपनी तीन गुना वेतन वृद्धि से संतुष्ट नहीं हैं।
संयुक्त संसदीय समिति ने सांसदों का वेतन कैबिनेट सचिव के वेतन के समतुल्य या उससे कुछ अधिक करने की जो अनुशंसा की थी, उससे पांच गुना वेतन वृद्धि को मंत्रिमंडल ने स्वीकार न कर अच्छा कार्य किया है। सांसदों का वेतन 1985 में 1500, 1998 में 4000, 2001 में 12,000 और 2006 में 16,000 रुपये था। यह वेतन वृद्धि पिछले चार वर्षो में चार गुणा से अधिक है। कैबिनेट द्वारा प्रस्तावित इस वेतन-वृद्धि को वापस लेने की मांग को लेकर लोकसभा में जो दृश्य उपस्थित हुआ, क्या वह गरिमामय था? सांसदों की वेतन वृद्धि को लेकर लालू प्रसाद सदैव मुखर रहे हैं। उनके अनुसार संसदीय समिति की सिफारिश का पालन न होना संसद का अपमान है। लोकसभा में अपनी वेतन-वृद्धि को लेकर सांसदों द्वारा किये गये हंगामे और इसके कारण सदन की कार्रवाई के स्थगन के बाद सांसदों द्वारा नकली और अवास्तविक (मॉक) संसद का गठन एक हास्यास्पद और चिंताजनक है। लोकसभा में इस तरह का नाटक आज की राजनीति का एक चित्र प्रस्तुत करता है। लालू प्रसाद और मुलायम सिंह इसमें अग्रणी रहे हैं। वास्तविक सांसदों द्वारा अवास्तविक संसद के गठन को क्या गंभीरतापूर्वक नहीं लिया जाना चाहिए। इस नकली, फर्जी संसद के प्रधानमंत्री लालू प्रसाद थे, अध्यक्ष गोपीनाथ मुंडे और कीर्ति आजाद विरोधी दल के नेता। लालू प्रसाद ने यूपीए की सरकार को बरखास्त करने का नाटक किया क्योंकि यह अलोकतांत्रिक और जनविरोधी थी। संसदीय लोकतंत्र में क्या इस तरह के नाटक की प्रशंसा की जानी चाहिए? मंत्रिमंडल के निर्णय को अस्वीकृत करते हुए लालू प्रसाद और मुलायम सिंह यादव ने सांसदों का वेतन अस्सी हजार एक रुपये किये जाने की मांग की। यह पूरी घटना हमारे सांसदों के क्रिया व्यापारों का एक चित्र पेश करती है। अपनी वेतन वृद्धि को लेकर सांसदों द्वारा लोकसभा के कार्य में बाधा उत्पन्न करना और उसे ठप करना कितना जायज है? क्या ऐसे सांसदों के वेतन में वृद्धि होनी चाहिए?
पंद्रहवीं लोकसभा के 315 करोड़पति सांसदों के लिए वेतन वृद्धि कितना जरूरी है? चौदहवीं लोकसभा में करोड़पति सांसदों की संख्या 154 थी, जो पंद्रहवीं लोकसभा में बढ़ कर दोगुनी से अधिक हो गयी है। पिछले पांच वर्ष में कई सांसदों की आय में वृद्धि हजार-दो हजार प्रतिशत से अधिक हुई है। क्या करोड़पति सांसदों में से कोई इस वेतन वृद्धि को स्वीकार न कर एक उदाहरण प्रस्तुत करेगा? विजय माल्या के लिए प्रतिमाह अस्सी हजार या पचास हजार रुपये का कितना महत्व है? सांसदों की वेतन वृद्धि के संबंध में सबकी राय लगभग एक समान और चिंताजनक है। सांसदों को प्राप्त होने वाला प्रति किलोमीटर सोलह रुपये यात्रा भत्ता कहां से जायज है? क्या प्रति किलोमीटर यह यात्रा भत्ता अन्य किसी सेवा में प्राप्त होता है? अमेठी के कांग्रेसी सांसद संजय सिंह राज परिवार के हैं, पर क्या उनके लिए सांसदों का अस्सी हजार रुपये वेतन सही है।
कई कांग्रेसी सांसदों के अनुसार अस्सी हजार वेतन भी कम है। सांसदों को सर्वाधिक सुविधाएं प्राप्त हैं। उनसे सभी सुविधाएं लेकर प्रतिमाह उनका वेतन दो-चार लाख रुपये किया जाना चाहिए। सांसदों ने अब अपने को जनसेवक न समझ कर सरकारी नौकरों की श्रेणी में ला खड़ा किया है। वे महंगाई के प्रश्न पर संसद में समानांतर सरकार का गठन नहीं करते। सुप्रीम कोर्ट की सलाह के बाद भी कृषि मंत्री शरद पवार मुफ्त में गरीबों के बीच अनाज के वितरण के पक्ष में नहीं हैं। अनाज तब सड़ता है जब व्यवस्था सडऩे लगती है।
सांसद अक्सर देश में गरीबी रेखा की बात करते हैं, लेकिन खुद को अमीर बनाने का कोई मौका नहीं छोड़ते। महीने का खर्चा प्रति सांसद साढ़े तीन लाख रुपये हो गया है, मगर सांसदों को संतोष नहीं, उन्हें और चाहिए। सरकारी नौकरशाह रहे मनमोहन सिंह ने पहली बार प्रधानमंत्री बनते ही सरकारी बाबुओं, नौकरशाहों, अध्यापकों आदि का वेतन बढ़ाकर 90 हजार रूपये तक कर दिया। यात्रा, आवासीय भत्ते, पेंशन आदि को भी बढ़ा दिया गया। तब अम्बिका सोनी, पवन बंसल या किसी और ने चूं नहीं किया था।
एक पूर्व वामपंथी सांसद का कहना है कि नकल करके किताबें लिखकर बहुत से लोग प्रोफेसर हो गये हैं, उनका वेतन 90 हजार रूपये यदि जायज है, यह मनमोहन सरकार उनको यदि कुल मिलाकर 90 हजार रूपये माहवारी दे रही है तो सांसदों को इतना वेतन देने में परेशानी क्यों? सभी सांसद तो उद्योगपति ,स्कूलपति, अस्पताल पति उनके अघोषित लाइजनर तो हैं नहीं, सो सांसदों को वेतन सचिवों से एक रूपया अधिक मिलना ही चाहिए। संसद सदस्यों ने अपना वेतन तीन गुना बढ़वा लिया और छह लाख रुपए महीने के खर्चे का पात्र बनने के बावजूद उनकी लड़ाई जारी रही।
लड़ाई का मुख्य कारण हैं कि सांसदों के अनुसार उन्हें जनता ने चुना है और जनता की ओर से वे देश के मालिक हैं इसलिए उनका वेतन भारत के सबसे बड़े अफसर कैबिनेट सचिव से कम से कम एक रुपए ज्यादा होना चाहिए। कैबिनेट सचिव को अस्सी हजार रुपए महीने मिलते है। जबकि देश की अस्सी फीसदी आबादी की पारिवारिक आमदनी मात्र छह सौ रुपए महीने है। गरीबी की सीमा रेखा के नीचे जो लोग रह रहे हैं और जो भूखे सो जाने के लिए अभिशप्त हैं उनकी गिनती तो छोड़ ही दीजिए। उस पर तो हमारे ये माननीय सांसद खुद ही हंगामा कर के संसद का समय बर्बाद करते रहेंगे।
सांसदों का यह भी कहना है कि अगर बेहतर सुविधाए मिलेंगी और अधिक वेतन मिलेगा तो ज्यादा प्रतिभाशाली लोग राजनीति में आएंगे। यह अपने आप में अच्छा खासा मजाक हैं। सिर्फ लोकसभा के 162 सांसदों पर आपराधिक मुकदमें चल रहे हैं जिनमें से 76 पर तो हत्या, चोरी और
अपहरण जैसे गंभीर मामले चल रहे हैंं। इन्हीं आंकड़ों के अनुसार चौंदहवीं लोकसभा में 128 सांसदों पर आपराधिक मामले थे जिनमें से 58 पर गंभीर अपराध दर्ज थे। जाहिर है कि प्रतिभाशाली नहीं, आपराधिक लोग संसद में बढ़ रहे हैं और उन्हें फिर भी पगार ज्यादा चाहिए।
भारतीय संविधान में सांसदों को यह अधिकार दिया गया है कि वे बहुमत के बल पर जो चाहे निर्णय कर सकते हैं। वह चाहें तो अपने वेतन और भत्ते आदि में भी बढ़ोतरी करवा सकते हैं। वैसे भी इनके वेतन भत्तों के विरोध में जितनी भी आवाजें सामने आ रही हैं वे वास्तविक कम और दिखावा ज्यादा हैं। विरोध करने वालों में वे लोग भी शामिल हैं जो स्वयं अपने पेशे में उनसे ज्यादा वेतन पाते हैं या पाने के लिए लालायित रहते हैं। देश के मौजूदा वातावरण और व्यवस्था में हर कोई यही सामान्य तर्क देता नजर आ रहा है कि जिस प्रकार खर्च बढ़े हैं उसमें एक सांसद को इतना वेतन और भत्ता तो मिलना ही चाहिए ताकि वह जनता की उम्मीदों के अनुरूप अपने दायित्वों का ईमानदारीपूर्वक निर्वहन कर सके। यदि उसे पर्याप्त वेतन और सुविधाएं नहीं मिलेंगी तो वह अपने दायित्वों का ठीक प्रकार से निर्वहन नहीं कर पाएगा। यह तर्क भी पहली नजर में बिल्कुल सही लगता है कि केंद्र सरकार के एक सचिव का वेतन यदि 80 हजार है तो माननीय संासदों का उससे कम क्यों होना चाहिए? आखिर एक सांसद की श्रेणी सचिव से ऊपर तो होनी ही चाहिए। चरणदास महंत की अध्यक्षता वाली समिति ने इसी के मद्देनजर सांसदों का वेतन 80,001 रुपया प्रतिमाह करने की संस्तुति किया। सांसदों के वेतन भत्ते बढ़ाए जाने के विरुद्ध जो कुछ कहा जा रहा है, वह इतने सामान्य हंैं कि तर्क की कसौटी पर ज्यादा देर नहीं ठहरते। मसलन, ऐसे सांसदों की संख्या बहुत ज्यादा है जो स्वयं कई व्यवसाय करते हैं या ऐसे पेशे से जुड़े हैं जिनसे उन्हें मोटी कमाई होती है। किंतु, ऐसे भी सांसद हो सकते हैं जो किसी व्यवसाय या पेशे से जुड़े नहीं हैं। इस तर्क के आधार पर तो हम भविष्य में केवल राजनीति को सर्वस्व मानकर सांसद बनने वालों के लिए कठिन स्थिति पैदा कर देंगे।
इस प्रकार के तर्को द्वारा आप संासदों को उनके सम्मान और जिम्मेवारी के अनुरूप वेतन-भत्ते और सुविधाएं पाने को गलत नहीं ठहरा सकते। वैसे भी, लोकसभा का एक सांसद औसत रूप से लगभग 14 लाख मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करता है। यह एक आम अनुभव है कि ज्यादातर सांसदों के यहां आने वालों का तांता लगा रहता है और उन्हें उनकी मदद भी करनी पड़ती है। इतना व्यापक जन संपर्क बनाए रखना ही भारी खर्च का काम है। ऐसा तो है नहीं कि बढ़ी हुई महंगाई केवल हमारे लिए है सांसदों के लिए नहीं। पूर्व रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव ने यही तर्क तो दिया कि कुछ लोग हैं जिनके पास कई तरह के धन हैं, लेकिन ज्यादातर लोग ऐसे हैं भी है जिनको वेतन-भत्तों पर ही निर्भर रहना पड़ता है। इस प्रकार सामान्य दृष्टि से सांसदों के वेतन-भत्तों में बढ़ोतरी सही नजर आती है। लेकिन जरा दूसरे नजरिये से देखिए। सांसद राजनीति में क्यों आते हैं? उनका सरोकार क्या है? वास्तव में इसके लिए गठित चरणदास महंत समिति द्वारा दूसरे देशों के सांसदों के वेतनमानों से तुलना करने की कसौटी ही गलत थी। इसी तरह अपने देश में सचिवों से सांसदों की तुलना भी उचित नहीं है। सचिव तो सरकारी नौकर हैं, उनके वेतन से तुलना का कोई औचित्य ही नहीं है। दुनिया के दूसरे कई देशों और भारत की राजनीति पृष्ठभूमि में भी अंतर है। वस्तुत: ये दो कसौटियां ही यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि हमारी राजनीति कहां से निकलकर कहां आ चुकी है।
भारत में राजनीति पेशा नहीं, जनसेवा का माध्यम मानी गई है। आजादी की लड़ाई या फिर बदलाव के आंदोलनों की पृष्ठभूमि से आए नेताओं की एक स्थापित परंपरा हमारे यहां है। उस श्रेणी के जो भी नेता इस समय संसद में होंगे वे कतई अत्यधिक वेतन-भत्ते और सुविधाओं को उचित नहीं ठहरा सकते। हमारे देश में ऐसे भी उदाहरण हैं जब राजनेता अपने पद को मिलने वाले वेतन का बड़ा हिस्सा देश के खजाने में वापस कर देते थे। यह थी राजनीति के पीछे की भावना। उनके सामने केवल देश होता था, देश के आम नागरिक होते थे, अपनी सुख-सुविधा उनके लिए मायने नहीं रखती थी। कोई सचिव यानी सरकारी अधिकारी कैसे एक जनसेवी के समकक्ष माना जा सकता है! इस प्रकार की तुलना केवल और केवल राजनीतिक मनोविज्ञान के पतन का सुबूत है। अगर वेतन एवं धनबल के आधार पर तुलना करनी है तो फिर सांसदों को सबसे ज्यादा वेतन लेने वाले कारोबारियों से भी ज्यादा मिलना चाहिए। आखिर एक कारोबारी को, चाहे वह कितना संपन्न क्यों न हो, हमारे संविधान ने एक सामान्य नागरिक के समान ही अधिकार दिया है, जबकि सांसदों को विशिष्ट अधिकार हैं। महात्मा गांधी के पास तो कौड़ी की भी संपत्ति नहीं थी, किंतु राष्ट्रपिता का दर्जा उन्हें ही मिला। जब राजनीति करने सरोकार बदल जाए तो फिर किसी राजनेता के लिए गांधी मानक नहीं हो सकते हैं। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जैसे राष्ट्रपति उनके लिए आदर्श नहीं हो सकते, जो अपने लिए निर्धारित वेतन से ज्यादा का हिस्सा वापस कर देते थे। तब एक राजनेता या जनसेवी के लिए अत्यधिक खर्च पाप माना जाता था। ऐसे लोगों का राजनीति में सम्मान नहीं था। धीरे-धीरे राजनीति और उसके द्वारा पोषित अर्थव्यवस्था ने सारे पुराने मानक धराशाई कर दिए। आज तो जिसके पास जितनी अधिक सुख-सुविधाएं हैं, जितनी विलासिता है, जितनी संपत्ति है, उसे उतना ही ज्यादा सम्मान मिल रहा है। ये मानक भी हमारे नेतृत्व वर्ग का ही बनाया हुआ है। यही वर्ग है, जिसने देश के बहुसंख्य आम आदमी की आय की चिंता किए बगैर सरकारी कर्मचारियों का वेतन बेतहाशा बढ़ा दिया। जिस देश की करीब 40 प्रतिशत आबादी अपनी न्यूनतम आवश्यकताएं भी पूरी नहीं कर पा रही हों, वहां एक सचिव का वेतन 80 हजार क्यों होना चाहिए? हालांकि न हमारे प्रधानमंत्री ही धनपति हैं और न कोई पूर्व प्रधानमंत्री ही इस श्रेणी के थे, पर आम मानक आज यही हो चुका है। इसलिए सांसदों को 50 हजार का वेतनमान, 45 हजार का क्षेत्र भत्ता, इतना ही कार्यालय भत्ता आदि भी कम लगता है। अगर वे भारतीय राजनीति के स्त्रोत को कसौटी बनाते तो निश्चित ही निष्कर्ष दूसरा आता। विडंबना देखिए कि वेतन भत्तों के लिए हंगामा करने वालों में वे लोग सबसे ज्यादा थे, जिनका आविर्भाव जयप्रकाश आंदोलन से हुआ है। उस आंदोलन का तो लक्ष्य ही राजनीति को आडंबरों से मुक्त कर उसे जनसरोकारों से जोडऩा था। यह इस बात का प्रमाण है कि हमारी समूची राजनीति का कितना क्षरण हो चुका है।