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भेड़ाघाट

Saturday, March 6, 2010

'म से परेशान महेश दादा

-विनोद उपाध्याय

सूर्यग्रहण का हमारे जीवन में क्या महत्व है? आज राजनीति की जबान पर गाली और हाथ में लाठी क्यों है? स्कूलों में सेक्स की शिक्षा जरूरी क्यों नहीं? यह सब सवाल अब उस आदमी के जीवन में कोई मायने नहीं रखते जो इनका रचयिता है। उस सख्स का नाम है महेश सिंह जिसे मजबूरी में 'दादाÓ कहना पड़ता है। सूत्रों (पत्रकार हूं इसलिए लिखना जरूरी है) की माने तो वह धरती के सबसे परेशान जीव है ,जिसकी खोज में मुझे वर्षों लग गए।
मुझे याद है कि मैं जब भी अपने भतीजे राज को पढऩे के लिए डांटता था तो वह जेनरल नॉलेज के सवालों की झड़ी लगाकर मेरी बोलती बंद कर देता था। उसके सवाल पर सवाल फिर जवाब सुन-सुनकर मैं यह तो जान गया हूं कि धरती पर सबसे बड़ा और छोटा जीव कौन है। लेकिन उस दिन तब हद हो गयी जब उसने मुझसे पुछ लिया धरती पर सबसे परेशान जीव कौन है? इस सवाल का जवाब न उसने दिया और न मैंने ही पुछने की हिम्मत की। हालांकि गाहे-बगाहे अजीजों के बीच इस प्रसंग को उठाकर जवाब जानने की कोशिश तो खुब की लेकिन कोई जवाब नहीं मिल सका। लेकिन जब से महेश दादा का साक्षात्कार हुआ है ऐसा लगता है जैसे भतीजे के सवाल का जवाब मिल गया।
दादा के पास तो परेशानियों का अंबार है लेकिन जानकारों की मानें तो आज-कल वे तीन 'मÓ से परेशान है। इनमें से पहला 'मÓ है मेहरारू (स्त्री),जिसका उनके लाईफ में कोई महत्व नहीं है, फिर भी वह है। ऐसा भी नहीं की उनकी गृहस्थी में कोई खोट हो। सब कुछ मजे में चल रहा है। फिर भी जाने क्या बात है, दादा ने जब से उम्र का आधा सैकड़ा पूरा किया है सुबह-सुबह बहुत बन-ठनकर घूमने निकल जाते हैं। पिंक शर्ट और बालों में गुलाबी रंग, क्या हो गया दादा को? यह बात सबको मालूम है कि उन्हें महिलाओं जैसे रंग बहुत पसंद हैं। लेकिन उस दिन समझ में आया कि वह रोज बालकनी में खड़े होकर क्यों गाते थे कि आदमी हूं, आदमी से प्यार करता हूं।
मैंने हिम्मत करके एक दिन दादा से पूछ लिया आदमी हूं, आदमी से प्यार करता हूं का क्या मतलब है? वे उबल पड़े और बोले भाई साहब मैं तो खुद भगवान से पूंछता हूं कि हे सृष्टि के पालनहार ब्रह्मा, इतना तो बता दीजिए कि अब सृष्टि का निर्माण होगा कैसे? आज का इनसान तो आपके बनाए नियमों को ही तोडऩे लगा। आदमी अगर आदमी से ही शादी कर लेगा, तो कौन बनेगा मम्मी? कौन बनेगा डैडी? कोई कैसे किसी को ललकार कर कह सकेगा कि मां का दूध पिया है, तो आ-जा अखाड़े में। मुझे तो लगता है, लड़कियों ने आजकल लड़कों को नखरे दिखाने शुरू कर दिए हैं और वे आपस में विवाह करने लग गई हैं, या फिर लड़कियों को गिफ्ट दे-देकर लड़के थक गए हैं।
मैंने पूंछ लिया इससे आपके इस रूप का क्या लेना-देना?
वे बोले,दर्द को समझने के लिए चोट का एहसास जरूरी है। मेरे इस व्यवहार से सभी (स्त्री-पुरूष)का सानिध्य आसानी से मिल रहा है। मैंने तो यहां तक पत्ता लगा लिया है कि अब कोई भी अभिभावक अपनी लड़की को दूसरी अन्य लड़की के साथ घुमने जाने देना पसंद नहीं कर रहे हैं। पहले बचपन में मां पूछती थी कि बेटी, तू किसके साथ सिनेमा जा रही है? प्रेमा और उमा के साथ जाने की तुरंत परमिशन मिल जाती थी। मगर माता-पिता आज क्या करेंगे, जब बेटी अपनी ही सहेली को सूट-बूट पहना दूल्हा बना घर ले आए ?
मुझे दादा की बात में दम दिखा लेकिन केवल स्त्री लिंग के खिलाफ उनकी ऐसी संभावना को गलत ठहराने के उदेश्य से मैंने कहा,ऐसा भी तो हो सकता है कि बेटा अपने ही दोस्त को साड़ी पहनाकर दुल्हन बनाए।
दादा भड़क उठे। बोले, अभी तक एक भी ऐसा मामला सामने नहीं आया है जबकि लड़कियों के आधा दर्जन मामले तो आपके मध्यप्रदेश में ही गिना सकता हूं। इस मामले में दादा से आगे बात करना मधुमक्खी के छाते में हाथ डालना होगा,इस लिए टॉपिक बदलना ही ठीक होगा।
दादा की परेशानी का सबब दूसरा 'मÓ मंहगाई है। वे कहते है महंगाई के सितम की ढोलक हमारे बाबा के जमाने में भी बजती थी। पिताजी के समय यह ढोल सरीखा पीटा जाता। अब यह नगाड़े की ध्वनि को प्राप्त है। सरकार के मनमोहनी वादों और सौ दिन की कवायद में इसके ताप से कितनी राहत मिलेगी, यह तो मनमोहन (कृष्ण) भी न जानें।
दादा बोले एक घटना याद आ रही है-हमारे गांव में एक सज्जन अपनी बेटी की ग्रोथ को लेकर पर्याप्त चिंतित थे। मित्रों से परामर्श किया, तो सुझाव परोसा गया कि बेटी का नाम बदल कर 'महंगाईÓ रख दो। बताते हैं कि वह सूखी-सी लड़की इस नामकरण के उपरांत यकायक तरूणी की गति को प्राप्त हो गई।
महंगाई सस्ती का उत्कर्ष है। इसकी छौंक लगते ही 'सस्तापनÓ दूर हो जाता है। वह बढ़ती नहीं, सप्रयास बढ़ाई जाती है। वह तोड़ती आमदनी है, आरोप लगता है 'कमर तोडऩेÓ का । महंगाई का मजा तो तब आवे, जब आलू चालीस रूपये और प्याज सत्तर रूपये 'दर्जनÓ बिके । महंगाई एक परंपरा है। इसका गौरवपूर्ण अतीत था, हाहाकारी वर्तमान है।
तीसरा 'मÓ है मानसून, जो घर से चला तो था ठीक-ठाक, लेकिन अपनी मस्ती में भटक रहा है। इधर आने का नाम ही नहीं लेता। कभी-कभी आता भी है, तो ठहरता नहीं। दादा की माने तो मेहरारू, महंगाई और मानसून में एक भावात्मक रिश्ता है।
मानसून लेट हुआ नहीं कि उसकी आड़ में महंगाई उछलना शुरू कर देती है और मेहरारू के तानों की बरसात होने लगती है। तीनों के सितम मामूली आदमी ही उठाता है। माननीयों पर इसका कोई असर नहीं पड़ता।

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