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भेड़ाघाट

Saturday, March 6, 2010

वन अधिकार कानून का जंगल राज

अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परंपरागत वन निवासी अधिनियम के तहत आदिवासियों, वनवासियों को मैदान में अधिकार पत्र देने के काम में भले तेजी न आई हो लेकिन राज्य सरकार कागजी कार्रवाई में लगातार प्रगति कर रही है। यही वजह है कि कानून के तहत 3 लाख 71 हजार 93 वनवासियों एवं आदिवासियों ने वन अधिकार पत्र के लिए अपने दावे प्रस्तुत कर दिए हैं। सर्वाधिक 80 हजार 696 दावे इंदौर संभाग में प्राप्त हुए हैं। इतना ही नहीं वन अधिकार समितियों द्वारा तीन लाख 55 हजार 851 दावे सत्यापित किए जा चुके हैं। साथ ही ग्रामसभा द्वारा तीन लाख 49 हजार 482 तथा उपखण्ड स्तर समिति द्वारा तीन लाख पांच हजार 543 संकल्प पारित किए गए हैं। इसके अलावा जिला स्तरीय समिति द्वारा दो लाख 69 हजार 14 प्रकरणों का निराकरण किया गया है।
बरातीलाल इस वन अधिकार कानून के अकेले शिकार नहीं हैं। गांव के दूसरे लोगों के साथ भी यही हुआ। सिवनी जिले की आमागढ़ पंचायत के नन्हीं कन्हार गांव में सभी परिवारों को ढ़ाई हेक्टेयर भूमि पर अधिकार का दावा करने के लिये बाध्य किया गया, जबकि उन्हें कानूनन 4 हेक्टेयर जमीन पर दावे का अधिकार था। यहां 29 परिवार हैं किन्तु 18 परिवारों को ही दावे करने दिये गये और यह बताया गया कि इस गांव में 1980 से मौजूद परिवारों को ही अधिकार पत्र मिलेंगे। इसका परिणाम यह हुआ कि बरातीलाल आदिवासी के परिवार से अलग होकर बने पांच नये परिवारों के पास दावा करने की स्वतंत्रता नहीं रह गई। ये सभी मिलकर 30 एकड़ जमीन वर्षों र्से जोत रहे हैं किन्तु अब इन 6 परिवारों को 6.25 एकड़ तक ही सीमित कर दिया गया। सवाल यही है कि क्या 24 सदस्यों के ये परिवार जीवित रह पायेंगें सवा छह एकड़ की खेती से अपना गुजारा कर पाएंगे ?
वन अधिकार कानून के क्रियान्वयन के लगभग डेढ़ साल के अनुभव यह बताते हैं कि अब भी आदिवासियों और वनों में रहने वाले अन्य परम्परागत वन निवासियों को ऐतिहासिक अन्याय से सीमित मुक्ति देने की कोशिशें हो रही हैं। विगत डेढ़ सौ सालों में सरकार ने सुनियोजित ढंग से वन विभाग को जंगलों का मालिक बनाने की पुरजोर कोशिशें की परन्तु उसका विरोध होता रहा। चूंकि आदिवासियों सहित कई अन्य गैर आदिवासी समुदाय वनों में और वन्यजीवन के साथ सह-जीवन की पद्घति से जीवन जीते रहे हैं। वन विभाग ने वनों पर अपना कब्जा स्थापित करने के उद्देश्य से सह-जीवन के इस समीकरण को बल और भेद के माध्यम से तोडऩे की लगातार कोशिश की। जाहिर है, आदिवासी समाज आज भी वन विभाग को एक जिम्मेदार और सहृदय विभाग नहीं मानता है।
यही कारण है कि भारत सरकार ने यह मानते हुये कि आदिवासियों के साथ हुये ऐतिहासिक अन्याय की क्षतिपूर्ति वन विभाग की कार्यशैली के जरिये नहीं की जा सकती है। वर्ष 2005 में बने इस कानून के क्रियान्वयन की जिम्मेदारी आदिवासी कल्याण मंत्रालय को सौंपी। इतना ही नहीं इस कानून के नियम और प्रक्रियाओं में भी वन विभाग की भूमिका को बेहद सीमित रखा गया परन्तु मध्यप्रदेश में संकट यह है कि वन विभाग के प्रभुत्व और बल के सामने आदिवासी विकास विभाग व्यावहारिक रूप से पनप ही नहीं पाया।
वन विभाग के अफसर ग्राम सभाओं और वन अधिकार समितियों की बैठकों में जाकर कानून के बारे में भ्रम की स्थिति पैदा कर रहे हैं। कन्हार गांव के ही सुखराम भलावी बताते हैं - हमें तो यह नहीं बताया कि गांव का हर वह स्वतंत्र परिवार दावा लगा सकता है, जो वन भूमि जोत रहा है। हमें तो उन्होंने रिकार्ड से बताया कि बस 18 परिवार के दावे लगेंगे। अब रोना आता है यह सोचकर कि बेटे-भाइयों के लिये जमीन नहीं बचेगी। जब सरकार ही ऐसा कर रही है तो फिर किस पर विश्वास करेंगे?
ऐसा नहीं है कि नन्हीं-कन्हार गांव में भूलवश ऐसा हुआ है। यहां तो बड़े पैमाने पर सरकार ने विसंगतियां पैदा की हैं। वन विभाग यह मानकर चल रहा है कि वन अधिकार कानून के तहत केवल उन्हीं 1.50 लाख परिवारों को जंगल की 2.5 लाख हेक्टेयर जमीन पर अधिकार दिया जाना चाहिये, जिनकी जानकारी उसके यानी वन विभाग के रिकार्ड में अतिक्रमणकारी के रूप मे दर्ज है।
वास्तविकता यह है कि वन विभाग के जमीनी अमले ने बहुत से अतिक्रमणकारी परिवारों की जानकारी को रिकार्ड में आने ही नहीं दिया है क्योंकि यदि वे सभी वास्तविक अतिक्रमणकारियों की रिपोर्ट अपने आला अफसरों के दिखाते तो उन पर सवाल उठते कि इतने अतिक्रमणकारी जंगल में क्यों हैं?
ऐसे में जमीनी अमला उन्हें बिना रिकार्ड में दर्ज किये बार-बार बेदखल करता रहा, झोंपड़े तोड़ते रहा और यह कभी कानून का सवाल नहीं बना क्योंकि जिन परिवारों की मौजूदगी के प्रमाण नहीं हैं, उनकी बेदखली तो हो ही नहीं सकती। कानून तो सबूत मांगता है। एक मुसीबत यह भी है कि इस कानून के तहत समुदाय को जंगल पर अपने सामाजिक अधिकार को सिद्घ करने के लिये स्वयं प्रमाण प्रस्तुत करने को कहा गया है। अन्याय के शिकार आदिवासियों को सिद्घ करना है कि उनके साथ अन्याय हुआ है, यह कानून की दूसरी विसंगति है।
सरकार में पिछले 60 से ज्यादा वर्षों से बाजिब-उल-अर्ज और निस्तार पत्रकों में समुदाय के संसाधनों के अधिकार, विस्तार और दायरे स्पष्ट रूप से दर्ज किये जाते रहे हैं। हर गांव की जानकारी सरकार के रिकार्ड रूम में मौजूद है, जिनसे पता चलता है कि गांव का समाज कौन से जंगल का निस्तार के लिये, जड़ी-बूटी के लिये, आवागमन के लिये, देवता की पूजा के लिये, लकड़ी के लिये या लघुवनोपज के लिये उपयोग करता रहा है।
कानून भी कहता है कि ये तमाम दस्तावेज ग्रामसभा और वन अधिकार समिति को सौंप दिये जाने चाहिये परन्तु नियम यह बना दिया गया है कि यदि कोई ग्राम सभा या समिति मांगेगी तब ही कुछ दस्तावेज उन्हें दिये जायेंगे। इस कानून के तहत अधिकारों के लिये दावा करने की प्रक्रिया भी आदिवासियों के अनुरूप नहीं है। 13 पृष्ठों के फार्म को भरने के साथ-साथ प्रमाण प्रस्तुत करने की तकनीक से गांव के लोग अनजान है।
नन्हीं कन्हार गांव के बराती लाल बाताते हैं -वन विभाग के बीटगार्ड, रेंजर और पटवारी गांव में आये तो उन्होंने ही बताया कि सभी पुराने परिवारों को ढ़ाई-ढ़ाई हेक्टेयर जमीन मिलेगी और इसके लिये फार्म पर अंगूठे लगवाये, हस्ताक्षर करवाये। हमें तो पता ही नहीं कि उस पर क्या लिखा था? फिर पता चला कि हमारी आधी से ज्यादा जमीन कब्जे से चली गई। यह तो हक छीनने वाला कानून है।
वन अधिकार मान्यता कानून में प्रावधान है कि पूर्व में किसी भी कारण से बेदखल या विस्थापित किये गये परिवारों के वन अधिकारों को भी मान्यता दी जायेगी, जिनका जबरिया विस्थापन किया गया है या सही पुनर्वास नहीं किया गया है किन्तु मध्यप्रदेश के पालपुर-कूनों अभ्यारण्य और पन्ना राष्टï्रीय अभ्यारण्य के 635 परिवारों की स्थिति अभी बेहद असहज बनी हुई है।
पालपुर-कूनों अभ्यारण्य के 187 परिवार तो 6 सालों में 7 बार विस्थापित किये गये हैं। वे यह नहीं जान पा रहे हैं कि आखिर वे अपने दावे कहां, किस जमीन पर और कैसे करेंगे। यह एक बड़ा मसला है क्योंकि मध्यप्रदेश में विगत 50 वर्षों र्में 10 लाख परिवार विस्थापित किये गये हैं, जिनमें से 38 प्रतिशत ग्रामीण आदिवासी परिवार हैं। इन्हें नजरंदाज किये जाने का मतलब है कि परिवार ऐतिहासिक अन्याय के शिकार बने रहेंगे और आजीविका के अधिकार से वंचित हो जायेंगे।
नियम यह कहता है कि यदि किसी भी दावेदार के दावे को निरस्त किया जाता है तो उसे कारण सहित सूचित किया जायेगा। छिंदवाड़ा जिले के हर्रई विकासखण्ड में आने वाले भुमका पंचायत में 136 परिवारों ने वन भूमि पर अधिकार के लिये दावे किये थे परन्तु 132 के दावे निरस्त हो गये। वन विभाग के कर्मचारियों ने बताया था कि उन्हें जमीनों से बेदखल कर दिया जायेगा। इससे पहले न तो उन्हें सूचित किया गया और न ही यह बताया गया कि वे फिर से सही तरीके से दावे दर्ज करायें।
सिवनी जिले की शाखादेही पंचायत की सरपंच बेलाकली उइके को केवल इतना बताया गया है कि ढ़ाई हेक्टेयर तक के अधिकार के लिये व्यक्तिगत दावे लगवायें, इसके अलावा उन्हें कोई अन्य जानकारी नहीं दी गई। ऐसे में पंचायतों और सरपंच से सार्थक भूमिका निर्वाह करने की अपेक्षा नहीं की जा सकती। यही कारण है कि अब तक 40 हजार से ज्यादा दावे निरस्त हो चुके है। सामाजिक संगठन् मध्यप्रदेश लोक संघर्ष साझा मंच द्वारा तीन जिलों छिंदवाड़ा, सिवनी और झाबुआ में कराये गये एक अध्ययन से पता चला है कि 81 प्रतिशत सरपंच और 97 प्रतिशत दावेदार ग्रामीणों को यही जानकारी है कि वन विभाग इस कानून का सर्वेसर्वा है। दिक्कत यह है कि यह विभाग सुनियोजित ढंग से वन अधिकार कानून की प्रक्रिया को अपने कब्जे में ले चुका है। नाकेदार, बीटगार्ड और डिप्टी रेंजर की मौजूदगी में ग्रामसभा की बैठक से लेकर तमाम दूसरी कार्यवाहियों हो रही हैं और आदिवासी विकास विभाग की भूमिका केवल ऐसे आदेश-दिशा निर्देश जारी करने तक सीमित रह गई है, जो ग्राम पंचायतों और दावेदारों तक पहुंच ही नहीं रहे हैं। यह तय था कि व्यक्तिगत और सामुदायिक दावे करने की प्रक्रिया को जमीनी स्तर पर लागू करने के लिये हर गांव के स्तर पर वन अधिकार समिति का गठन ग्रामसभा में किया जायेगा। जिसमें वन विभाग की कोई भूमिका नहीं होगी। गांव के दावेदारों से पता चलता है कि वन विभाग द्वारा पहले से बनवाई गई वन सुरक्षा समिति से ही सारे काम करवाये गये और उस समिति के अध्यक्ष सुखराम भलावी को यह पता ही नहीं चलने दिया गया।
वन विभाग ही वन सुरक्षा समिति को पूरी तरह से नियंत्रित करती है। चूंकि इनके बीच आर्थिक लेन-देन भी होता है, इसलिये समिति पूरी तरह से विभाग के प्रभुत्व में ही काम करती है। लोक संघर्ष साझा मंच के अध्ययन से यह भी पता चला कि 37 प्रतिशत वन सुरक्षा समितियों को ही वन अधिकार समिति में बदल दिया गया।
डेढ़ साल पहले तक माना जा रहा था कि आदिवासियों और अन्य वन निवासियों की वर्तमान स्थिति को बदलने में वन अधिकार मान्यता कानून अहम् भूमिका निभा सकता है लेकिन इसके क्रियान्वयन के तौर-तरीकों ने इस कानून को विफलता के घेरे में खड़ा कर दिया है, जिस पर अभी सोचने का समय कम से कम सरकार के पास तो नहीं ही है।

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