भारत में नौकरशाह उस समय तक जननायक नहीं बन सकते जब तक अफसरशाही का भारतीयकरण नहीं हो जाता। क्योंकि यह सर्वविदित है कि भारत में नौकरशाही का मौजूदा स्वरूप ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की देन है। जिसके कारण यह वर्ग आज भी अपने को आम भारतीयों से अलग, उनके ऊपर, उनका शासक और स्वामी समझता है। अपने अधिकारों और सुविधाओं के लिए यह वर्ग जितना सचेष्ट रहता है, आम जनता के हितों, जरूरतों और अपेक्षाओं के प्रति वह उतना ही उदासीन रहता है। स्वभावत: अफसर बने रहने की ललक तथा देश के संसाधनों का अनैतिक रूप से दोहन करने की प्रवृत्ति उसके जननायक बनने में सबसे बड़ी बाधा बनकर सामने होते हैं। देश जब गुलाम था, तब महात्मा गाँधी ने विश्वास जताया था कि आजादी के बाद अपना राज यानी स्वराज्य होगा। लेकिन आज जो हालत है, उसे देख कर कहना पड़ता है, कि अपना राज है कहाँ? उस लोक का तंत्र कहाँ नजर आता है, जिस लोक ने अपने ही तंत्र की स्थापना की?
आज हमारे चारो तरफ अफसरशाही का जाल है। लोकतंत्र की छाती पर सवार अफसरशाही पीडि़त जनता के सपनों को चूर-चूर कर रही है। वह भी तल्खी के साथ। बस यही कहा जा सकता है, कि हम लोग लोकतंत्र का केवल स्वांग कर रहे हैं। राज तो कर रहे हैं, ब्यूरोके्रट्स। और उनके इशारे पर नाच रहे हैं, हमारे कमजोर और भ्रष्ट बुद्धिहीन जनप्रतिनिधि। लोकतंत्र में लोक ही सबसे बड़ा होता है। अफसर केवल हाथ बंाध कर खड़ा रहे और हमारे निर्देशों को पालन करे। वह नौकर है। उसे अपनी हैसियत पहचाननी है। लेकिन अपने देश में इस नौकर के साथ जब हमने शाह जोड़ कर उसे नौकरशाह बना दिया है तो वह शाही बनेगा ही।
स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद भारत में लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के तहत तमाम महत्वपूर्ण बदलाव हुए। लेकिन एक बात जो नहीं बदली वह थी नौकरशाही की विरासत और उसका चरित्र। कड़े आंतरिक अनुशासन और असंदिग्ध स्वामी भक्ति से युक्त सर्वाधिक प्रतिभाशाली व्यक्तियों का संगठित तंत्र होने के कारण भारत के शीर्ष राजनेताओं ने औपनिवेशिक प्रशासनिक मॉडल को आजादी के बाद भी जारी रखने का निर्णय लिया। इस बार अनुशासन के मानदंड को नौकरशाही का मूल आधार बनाया गया। यही वजह रही कि स्वतंत्र भारत में भले ही भारतीय सिविल सर्विस का नाम बदलकर भारतीय प्रशासनिक सेवा कर दिया गया और प्रशासनिक अधिकारियों को लोक सेवक कहा जाने लगा, लेकिन अपने चाल, चरित्र और स्वभाव में वह सेवा पहले की भांति ही बनी रही। प्रशासनिक अधिकारियों के इस तंत्र को आज भी स्टील फ्रेम ऑफ इंडिया कहा जाता है। नौकरशाह मतलब तना हुआ एक पुतला। इसमें अधिकारों की अंतहीन हवा जो भरी है। हमारे लोगों ने ही इस पुतले को ताकतवर बना दिया है। वे ऐसा करने का साहस केवल इसलिए कर पाते हैं, कि उनके पास अधिकार हैं। जिन्हें हमारे ही विकलांग-से लोकतंत्र ने दिया है।
व्यवस्था में बदलाव की किसी भी कोशिश का ये नौकरशाह कड़ा विरोध करते हैं और इसका असर खुद उन पर और उनके कामकाज पर दिखाई देता है। संदेह और अपवादों की चपेट में आए नौकरशाही का पतन हो रहा है। नौकरशाही का जनसामान्य की समस्याओं और उनके निराकरण से मानो वास्ता खत्म हो गया है। आज हर नौकरशाह किसी अनैतिक कार्य में या तो फंसाता दिख रहा है या उसे करने या कराने के लिए कोर्ट का सहारा ढूंढता नजर आ रहा है। कुछ भ्रष्ट राजनीतिज्ञों ने नौकरशाही को ऐसा बना दिया है कि उसकी सामाजिक कल्याण की इच्छा शक्ति और श्रेष्ठ प्रशासन की भावनाएं ही खत्म होती जा रही हैं। उनका ध्यान केवल अपनी नौकरी, शानदार सरकारी सुख सुविधाओं, विदेश भ्रमण और विलासित वैभव तक केन्द्रित रह गया है। अपनी इस मानसिकता के चलते वह न तो सौंपे गए दायित्वों का ठीक तरीके से निर्वहन कर पा रहे हैं और न ही सच्चे लोक सेवक बनकर जनता के दिल में जगह बनाने में कामयाब हो सके।
Tuesday, August 10, 2010
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