एक छोटे से किसान के घर से मुख्यमंत्री पद पाने तक मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का एक ही सपना था कि प्रदेश का किसान खुशहाल हो। लेकिन सत्ता हाथ में आते ही उन्हें भी कुछ बड़े घरानों ने अपने मोहफांस में ऐसा फांस लिया है कि वे उन पर जरुरत से ज्यादा मेहरबानी दिखा रही है। जिस सरकार पर राज्य की संपत्ति बचाने बढ़ाने की जिम्मेदारी है, वही सरकार अपनी जिम्मेदारियों को मुंह चिढ़ाते हुए राज्य की संपत्ति का विनाश करने में जुटी है।
एक तरफ सरकार वन भूमि को कुछ बड़े घरानों को विकास के नाम पर बांट रही है वहीं करोड़ों रुपए की सैकड़ों एकड़ जमीन के लिए सरकार और उषा राजे होलकर के बीच चल रहे मुकदमे में सरकार हार गई है। यह मुकदमा 45 सालों से चल रहा था और संभवत: इंदौर के इतिहास का सबसे बड़ा जमीन मुकदमा था। जो जमीनें सरकार हारी है उसमें कलेक्टोरेट के सामने का गंजी कंपाउंड भी शामिल है। इसके अलावा अन्य जमीनें बिजासन बीड़, बेरछा बीड़ और आशापुरा बीड़ की हैं। इस मामले में हाई कोर्ट के जस्टिस विनय मित्तल ने उषा राजे के पक्ष में फैसला दिया। जिले की आशापुरा,बिजासन,बेरछा और मोहना बीड़ के अलावा गंजी कंपाउंड की जमीनें रियासत काल में होलकरों की थीं। 1964 में तत्कालीन कलेक्टर ने उषा राजे होलकर को नोटिस दिया कि उक्त सैकड़ों एकड़ जमीनें हमारी हैं। इसके खिलाफ होलकर परिवार कोर्ट में चला गया। इस तरह 15 मई 1964 को मुकदमा शुरू हुआ। पहले मुकदमा सिविल कोर्ट में चला। यहां जमीन को लेकर होलकर परिवार का तर्क था कि उक्त जमीन हमारी ही हैं और 1948 में होलकर स्टेट के हाउसहोल्ड विभाग के अधीन थीं। यह जमीनें 1951 तक तत्कालीन आर्मी को दी जरूर थीं लेकिन वो उनकी घोड़ों की घास की आपूर्ति के लिए दी थी, इस पर हक तो हाउसहोल्ड विभाग का ही था। 1951 में ये जमीनें आर्मी ने हाउसहोल्ड विभाग को वापस कर दी थीं। होलकर परिवार 1951 से 1964 तक जमीन को अपनी कहते हुए सरकार को तोजी भी भरता रहा। इसी आधार पर उन्होंने कोर्ट में अपनी मालिकी साबित की। उनका यह भी कहना था कि 1948 में रियासतों से अनुबंध हुआ था उस अनुबंध के आर्टिकल 12 के 14वें नंबर पर साफ लिखा है कि होलकरों की मालिकी में हाउसहोल्ड की संपत्ति (यानी उक्त जमीनें) भी शामिल रहेगी।
सरकार के तर्क थे कि मध्यभारत के निर्माण के बाद उक्त जमीन भी सरकार के पास आ गई थी और तोजी भर देने मात्र से कोई मालिक नहीं हो जाता इसलिए 1964 में कलेक्टर ने जमीन वापस लेने का नोटिस दिया था। दोनों पक्षों को सुनने के बाद मार्च 1992 में सरकार ने मोहना बीड़ को छोड़कर बाकी जमीनों का फैसला होलकर परिवार के पक्ष में दिया।
फैसले के खिलाफ दोनों पक्ष हाई कोर्ट में गए। होलकर परिवार जहां मोहना बीड़ की जमीन के लिए गया वहीं सरकार सभी जमीनों के लिए गई। हाई कोर्ट ने 24 मार्च 2000 को यह केस कुछ सवालों के साथ फिर निचली अदालत में रिमांड कर दिया। इसमें एक सवाल यह भी था कि संविधान के अनुच्छेद 363 के तहत आने वाले मुकदमे सिविल कोर्ट में सुने जा सकते हैं या नहीं। दोनों पक्षों को सुनने के बाद 17 अगस्त 2001 को कोर्ट ने सरकार के पक्ष में फैसला दिया।
उसके बाद होलकर परिवार ने फिर हाइकोर्ट की शरण ली। अपना पक्ष मजबूत करने के लिए उसने रियासत काल के कई कर्मचारियों की गवाही और दस्तावेज पेश किए। अंतत: 13 अगस्त 2010 को हाई कोर्ट के जस्टिस विनय मित्तल ने होलकर परिवार की अपील मंजूर करते हुए 17 अगस्त 2001 को सरकार के पक्ष में दिए फैसले को निरस्त कर दिया।
दूसरा मामला संरक्षित वन्य क्षेत्रों और अभयारण्यो से सम्बंधित है जहाँ तमाम नियम कानूनों को ताक में रख कर बड़े घरानों को उपकृत किया जा रहा है। खास बात यह है कि जिन बड़े घरानों पर सरकार मेहरबान है उनके कारण मुख्यमंत्री की भी बदनामी हुई थी। बड़े घरानों पर सरकार की इस मेहरबानी का राज क्या है? जिस जेपी एसोसिएट्स से चार डम्पर लेकर शिवराज सिंह मय धर्म पत्नी साधना सिंह के डम्पर कांड की गिरफ्त में है उसी समूह को उपकृत करने के लिए सरकार उतावली हो रही है। खबरों के मुताबिक़ जेपी एसोसिएट्स को सतपुडा और पेंच टाइगर रिजर्व में कोयला खदान की अनुमति दी गई है। इसी प्रकार से सोंम घडिय़ाल अभयारण्य में सीमेंट प्लांट और लाइम स्टोन माइन की भी अनुमति दी गई है। दोनों ही मामलों में तामाम नियम कानून और आपत्तियों को खारिज करते हुए सरकार ने वांछित शर्ते भी नहीं माँगी है।
खास बात यह है कि जिस वन विभाग और वाइल्ड लाइफ बोर्ड पर वन और अन्य प्राणियों के संरक्षण की जिम्मेदारी है वही वनों का सफाया कर वन्य प्राणियों को संकट में डालने पर आमादा है। जिन विभागों पर निर्माण और खनन की अनुमति देने की जिम्मेदारी है, वे खामोश है, जबकि खुद वन विभाग और वाइल्ड लाइफ बोर्ड इसकी पहल कर रही है। अब तक यह होता है कि संबंधित विभागों के अधिकारी इस तरह के प्रस्ताव पर वन विभाग की अनुमति- असहमति लेते थे, लेकिन अब वन विभाग और बोर्ड ही खुद अनुमति देने को जरुरत से ज्यादा उतावला रहा है।
जेपी एसोसिएट्स को छिंदवाडा में पेंच और सतपुडा नॅशनल पार्क में कोयला खदान की अनुमति दी गई है, जहां विभाग के ही अनुसार 3 लाख 29 हजार 872 वृक्ष है। जेपी एसोसिएट्स ने भरोसा दिलाया कि एक भी वृक्ष को क्षति नहीं पहुंचेगी और विभाग तुरंत मान गया। पचमढ़ी बायोस्फीयर रिजर्व से मात्र 15 किमी की दूरी पर कोयला खनन किया जाएगा। विभागीय फील्ड डायरेक्टर ने यहाँ 2006 की वन्य प्राणी गणना में दो तेदुओ की उपस्थित दर्ज की थी। जाहिर है कि कोयला खदान, मजदूरो की गतिविधि और परिवहन के कारण जहां वन्य संपदा का क्षरण होगा, वही वन्य प्राणी भी प्रभावित हुए बगैर नहीं रहेगे।
वाइल्ड लाइफ बोर्ड की जिस बैठक में उक्त अनुमति दी गई, उसमे बोर्ड के एक सदस्य और पूर्व पीसीसीएफ एपी दिवेदी ने आपत्ति दर्ज की। उन्होंने कहा कि खदान चलेगी तो वन और वन्य प्राणी नहीं बचेगे। वन विभाग को ऐसे मामले अपने स्तर पर ही ख़ारिज कर देने चाहिए, किन्तु अधिकारी खुद अनुमति देने को आतुर है। वन क्षेत्र की अनुमति को उन्होंने समझ से परे बताया। सीधी जिले के मझगंवा, वदगोना और हिनौती में जेपी एसोसिएट्स को लाइम स्टोन माइन की अनुमति दी गई है विशेषज्ञों का मानना है कि सीमेंट फैक्टरी का डिस्चार्ज मडवाल नाले के जारिये सोंम घडिय़ाल क्षेत्र में खतरा बन जाएगा। नाले सिल्डलोड को रोकने और पानी का सतत परिक्षण करने की शर्त बोर्ड ने आमान्य कर दी। इसके लिए सरकार राष्ट्रीय चम्वल अभयारण्य, मुरैना के रिसर्च आफिसर आरके शर्मा से क्षेत्र का अध्ययन कराने की आड ली, जिन्होंने कोई खतरा न बताते हुए अनुमति देने को उचित बताया। गौरतलब है कि यह आफिसर विभाग में दैनिक वेतन भोगी के रूप में भर्ती थे और अब भी राजपत्रित अधिकारी नहीं है। इस प्रकार इनकी रिपोर्ट भी आमान्य होना चाहिए। नियमानुसार विभाग को इसकी जांच प्रदुषण निवारण मंडल से करानी थी किन्तु ऐसा नहीं किया गया 7 विभाग तो जेपी एसोसिएट्स के सामने बिछा हुआ था इसलिए बोर्ड सदस्य की आपत्ति भी ख़ारिज की गई इस प्रकार सरकार ने जेपी एसोसिएट्स को नियमविरुद्ध उपकृत किया।
जेपी एसोसिएट्स पर सरकार की मेहरबानी के कुछ और नमूने प्रकाश में आये है, जिन पर नियंत्रण महालेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट के अनुसार जल संसाधन संभाग, देवसर में जेपी एसोसिएट्स के उद्योग को गोपद नदी से जल की आपूर्ति की गई। शासन ने जुलाई 2003 में प्राकृतिक शासकीय स्त्रोत से जल की आपूर्ति करने पर 0.147 रुपये प्रति घन मीटर दर तय की थी, लेकिन इस समूह पर सरकार की मेहरबानी के चलते जुलाई 2007 में जलापूर्ति का जो अनुबंध किया गया, उसमे मात्र 0.14 रुपये प्रति घन मीटर की दर तय की गई और इस दर की राशि भी नहीं वसूली गई। उससे शासन को 3.45 करोड़ रुपयों की हानि हुई।
जेपी समूह को उपकृत करने के एक और मामले में कैग की रिपोर्ट में आपत्ति जताई गई है। मध्यप्रदेश शासन ने स्थानीय क्षेत्र में माल के प्रवेश पर कर अधिनियम 1976 तथा नियमों और अधिसूचना के अंतर्गत खपत, उपयोग अथवा विक्रय के लिए स्थानीय क्षेत्र में प्रवेश करने वाली वस्तुओ पर प्रवेश कर का प्रावधान किया है। जेपी एसोसिएट्स ने अपने उधोग के लिए सीमेंट, कोयला, बालू, तथा एचटीएस वायर का परिवहन किया, जिनका प्रवेश कर नहीं चुकाया गया। इस संबंध में क्षेत्रीय सहायक आयुक्त ग्वालियर ने उत्तर दिया कि जेपी एसोसिएट्स का कारखाना रेलवे की भूमि पर स्थापित है, जो स्थानीय क्षेत्र में नहीं आता है।
इस कारण प्रवेश कर नहीं वसूला गया। कैग ने अपनी टिपण्णी में लिखा है कि कथित निर्णय का दोबारा कर निर्धारण करना था, न कि यह निर्णय करना कि रेलवे साइडिंग स्थानीय क्षेत्र में है अथवा नहीं। इसके अतिरिक्त मध्यप्रदेश राजस्व बोर्ड ने अपने 2002 के निर्णय में कहा है कि रेलवे साइडिंग तथा रेल लाइन स्थानीय क्षेत्र में आते है। में. लार्सन एंड टुब्रो लि. बनाम आयुक्त वाणिज्य कर प्रकरण में रेल लाइन तथा रेलवे साइडिंग को स्थानीय क्षेत्र में माना गया था. इसके बावजूद सरकार ने जेपी एसोसिएट्स के विरुद्ध प्रवेश कर वसूली की कार्रवाई नहीं की।
Friday, August 20, 2010
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