मध्यप्रदेश का मालवांचल हमेशा से सिमी का गढ़ रहा है। भले ही पुलिस दावे करे कि मालवांचल सहित पूरे प्रदेश में सिमी के गढ़ को नेस्तानाबूत कर दिया गया है, लेकिन राख में आग अभी भी सुलग रही है। खूफिया सूत्रों की माने तो पुलिस के तेज होते पहरे के बीच सिमी कार्यकर्ताओं ने नक्सलियों से हाथ मिला लिया है और उन्हें आर्थिक सहायता पहुंचा रहे हैं। इसमें सिमी का साथ दे रहे हैं प्रदेश में अफीम की अवैध खेती करने वाले माफिया।
अफगानिस्तान में अगर नशे का कारोबार और खेती तालिबानी आतंकवादियों लिए आर्थिक संजीवनी बनी हुई है तो भारत में अफीम की खेती नक्सलवाद के लिए आर्थिक आधार का प्रमुख स्रोत हो गया है मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार और राजस्थान में अफीम की खेती के कारोबार के जरिए नक्सली अपने लिए धन जुटा रहे हैं। भारत में वैसे तो अफीम की खेती तीन राज्यों क्रमश: मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में की जाती है। लेकिन अभी भी सबसे अधिक अफीम का उत्पादन मध्यप्रदेश के 2 जिलों क्रमश: नीमच और मंदसौर में होता है। हालांकि अफीम की खेती करने वालों पर पुलिस की नजर रहती है, लेकिन सूत्र बताते हैं कि अपनी लचर प्रणाली और सांठ-गांठ के कारण वह अवैध खेती पर अंकुश नहीं लगा पा रही है। जिसके कारण यहां हो रही अफीम की अवैध खेती की कमाई नक्सलियों को पहुंचाई जा रही है।
कुछ दिनों पहले तक मध्य प्रदेश और राजस्थान के अलावा कहीं और अफीम की खेती करने के बारे में कोई सोच भी नहीं सकता था। किंतु अब उत्तर प्रदेश में भी इसकी खेती होने लगी है। हाल ही में इस श्रेणी में बिहार और झारखंड का नाम भी शामिल हो गया है। दरअसल बिहार और झारखंड के कुछ जिलों में गैरकानूनी तरीके से अफीम की खेती की जा रही है।
अफीम की खेती के लिए सबसे उपर्युक्त जलवायु ठंड का मौसम होता है। इसके अच्छे उत्पादन के लिए मिट्टी का शुष्क होना जरुरी माना जाता है। इसी कारण पहले इसकी खेती सिर्फ मध्य प्रदेश और राजस्थान में ही होती थी। हालांकि कुछ सालों से अफीम की खेती उत्तर प्रदेश के गंगा से सटे हुए इलाकों में होने लगी है, पर मध्य प्रदेश और राजस्थान के मुकाबले यहाँ फसल की गुणवत्ता एवं उत्पादकता अच्छी नहीं होती है। अफीम की खेती पठारों और पहाड़ों पर भी हो सकती है। अगर पठारों और पहाड़ों पर उपलब्ध मिट्टी की उर्वराशक्ति अच्छी होगी तो अफीम का उत्पादन भी वहाँ अच्छा होगा। इस तथ्य को बिहार और झारखंड में कार्यरत नक्सलियों ने बहुत बढिय़ा से पकड़ा है। वर्तमान में बिहार के औरंगाबाद, नवादा, गया और जमुई में और झारखंड के चतरा तथा पलामू जिले में अफीम की खेती चोरी-छुपे तरीके से की जा रही है। इन जिलों को रेड जोन की संज्ञा दी गई है। ऐसा नहीं है कि सरकार इस सच्चाई से वाकिफ नहीं है। पुलिस और प्रशासन के ठीक नाक के नीचे निडरता से नक्सली किसानों के माध्यम से इस कार्य को अंजाम दे रहे हैं। खूफिया सूत्र बताते हैं कि अफीम की खेती में पारंगत मध्यप्रदेश के किसान यहां आकर नक्सलियों का हाथ बटा रहे हैं।
उल्लेखनीय है कि प्रतिवर्ष इस रेड जोन से 70 करोड़ राजस्व की उगाही नक्सली कर रहे हैं। सूत्रों के मुताबिक सीपीआई, माओइस्ट के अंतर्गत काम करने वाली बिहार-झारखंड स्पेशल एरिया कमेटी भी 300 करोड़ रुपयों राजस्व की उगाही प्रत्येक साल सिर्फ बिहार और झारखंड से कर रही है। हाल ही में बिहार पुलिस ने नवादा और औरंगाबाद में छापेमारी कर काफी मात्रा में अफीम की फसलों को तहस-नहस किया था। औरंगाबाद के कपासिया गाँव जो कि मुफसिल थाना के तहत आता है से दो किसानों को अफीम की खेती करने के जुर्म में गिरफ्तार किया गया था। औरंगाबाद जिला में प्रमुखत: सोन नदी के किनारे के इलाकों मसलन, नवीनगर और बारुल ब्लॉक में अफीम की खेती की जाती है। एक किलोग्राम अफीम की कीमत भारतीय बाजार में डेढ़ लाख है और जब इस अफीम से हेरोईन बनायी जाती है तो उसी एक किलोग्राम की कीमत डेढ़ करोड़ हो जाती है।
कुछ दिनों पहले नवादा पुलिस ने नवादा और जमुई की सीमा से लगे हुए हारखार गाँव में एक ट्रक अफीम की तैयार फसल को अपने कब्जे में लिया था। चूँकि सामान्य तौर पर बिहार और झारखंड में अफीम की खेती पठार और पहाड़ों में अवस्थित जंगलों में की जाती है। इसलिए पुलिस के लिए उन जगहों की पहचान करना आसान नहीं होता है। बावजूद इसके बिहार पुलिस सेटेलाईट की मदद से अफीम की खेती जहाँ हो रही है उन स्थानों की पहचान करने में जुटी हुई है।
आमतौर पर नक्सली किसानों को अफीम की खेती करने के लिए मजबूर करते हैं। कभी अंग्रेजों ने भी बिहार के ही चंपारण में किसानों को नील की खेती करने के लिए विवश किया था। उसी कहानी को इतिहास फिर से दोहरा रहा है। जब पुलिस अफीम के फसलों को अपने कब्जे में ले भी लेती है तो उनके शिकंजे में केवल किसान ही आते हैं। पुलिस की थर्ड डिग्री भी उनसे नक्सलियों का नाम उगलवा नहीं पाती है।
नक्सली नासूर धीरे धीरे पूरे देश में अपना पैर फैला रहा है। कुल मिलाकर आंतरिक युद्ध की स्थिति हमारे देश में व्याप्त है। अगर अब भी नक्सलियों पर काबू नहीं पाया गया तो किसी बाहरी देश को हम पर हमला करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। हमारा देश अपने वालों से ही तबाह हो जाएगा। अगर इसे रोकना है तो हमें इनके आर्थिक स्रोत को किसी तरह से भी रोकना ही होगा। क्योंकि इस गैर कानूनी व्यवसाय में लागत की तुलना में मुनाफा हजारों गुणा ज़्यादा है। कम लागत और बेतहाशा मुनाफे को देखकर अधिकांश लोग अफीम की खेती करने में जुट गए हैं। अफीम की पैदावार से नक्सलियों को बतौर लेवी कमीशन भी मिलने लगा है।
मध्यप्रदेश के चंबल घाटी के मुरैना शहर में मुस्लिम आतंकवादी संगठन का एक कमांडर पकड़ा जाएगा यह किसी ने नहीं सोचा। चंबल घाटी के लोग तो अपनी बंदूकों और हत्यारों पर भरोसा करते हैं और बाहर से आने वालो को खदेड़ देते हैं। मगर पिछले साल 27 मई को आठ साल से फरार सिमी का कमांडर इशाक खान पकड़ा गया था और पकड़े जाने पर उसने बताया कि नौ साल पहले 20 मई 2000 को चेन्नई एक्सप्रेस में बम भी उसने रखा था और बम ग्वालियर से प्रकाशित होने वाले अखबारो में लिपटा हुआ था इसलिए जाहिर है कि ग्वालियर भी सिमी से मुक्त नहीं है।
आम तौर पर देश का दिल कहे जाने वाले मध्य प्रदेश और उसके भी मालवा अंचल में स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंंट ऑफ इंडिया-सिमी के अड्डे और हत्यारों के खजाने होंगे यह पहले किसी ने नहीं सोचा था। मगर आतंकवादियों का तो पुराना रवैया है कि जहां उनके होने का किसी को अंदेशा भी नहीं हो, वहीं जा कर रहा जाए। मध्यप्रदेश में सिमी का नेटवर्क काफी मजबूत रहा है और इंदौर के पास एक अड्डा बना कर ये लोग बाकायदा आतंक का प्रशिक्षण दे रहे थे। प्रशिक्षण भी ऐसा वैसा नहीं,। एकदम सेना के गौरिल्ला कमांडो जैसा।
2008 में सिमी के तेरह नेताओं को इंदौर के पास नदी के किनारे उनके अड्डे से पकड़ा गया था। इनमें सिमी का महासचिव सफदर नागौरी और उसका भाई कमरूद्दीन भी था। भोपाल और इंदौर के बीच और भोपाल से पैतीस किलोमीटर दूर चोराल नाम की रमणीक जगह पर भी सिमी का एक और अड्डा था जहां केरल, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के मुस्लिम आतंकवादी प्रशिक्षण लेते थे और इसमें इस्लामिक मुजाहिदीन जैसे खतरनाक संगठन के लोग थे। यहां जब छापा मारा गया तो सिमी के कर्नाटक चीफ हाफिज हुसैन और केरल में सिमी का संयोजक कमरूद्दीन कापडिय़ा भी पकड़ा गया। कापडिय़ा की तलाश अहमदाबाद में हुए धारावाहिक धमाकों के अभियुक्त के तौर पर की जा रही है।
इसके बाद आजमगढ़ का रहने वाला और जयपुर, अहमदाबाद में दर्जनों लोगों की जान लेने वाला सैफ उर्र रहमान भी जबलपुर से पकड़ा गया। ये लोग मध्य प्रदेश में आकर बसे थे और अपना पूरा कर्तव्य कर रहे थे इससे जाहिर है कि इन्हें मध्य प्रदेश बहुत ज्यादा सुरक्षित लग रहा था लेकिन ये पकड़े गए इससे जाहिर है कि मध्य प्रदेश में सरकार आंख बंद कर के नहीं बैठी है। हालांकि इसका कोई राजनैतिक अर्थ नहीं हैं मगर 1993 से 2003 तक मध्य प्रदेश में आतंकवादियों और मुस्लिम खूनी संगठनो का असर लगातार बढ़ा। इसे आप संयोग कह सकते हैं कि इस दौरान प्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी और दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री थे। शिवराज सिंह चौहान की सरकार ने जब छापे मारे तो खरगौन जिले के झीरामिया गांव से अपार विस्फोटक और आधुनिक हथियार बरामद हुए। संयोग से यह गांव उस सोहराबुदीन शेख का घर है जिसको फर्जी मुठभेड़ में मारने के मामले में नरेंद्र मोदी की सरकार अब तक फंसी हुई है। यहां तो आधुनिक हथियार बनाने और देशी हथियारों को आधुनिक बनाने का बाकायदा एक अड्डा बन गया था।
चाहे आतंकवाद हो, नक्सलवाद हो या फिर खुफिया संस्थाओं के गैरकानूनी अभियान, उनके भरण-पोषण का यह एक बड़ा आधार है। अब नशीले पदार्थों की तस्करी आम आपराधिक या तस्कर गिरोहों के हाथ में नहीं रही। खुफिया एजेंसियों और आतंकवादी संगठनों ने इस पर कब्जा कर लिया है। सासाराम और मोहनियां उत्तर भारत में ड्रग स्मगलिंग के पुराने केंद्र रहे हैं। यहां के ड्रग माफियाओं के तौर अफगानिस्तान और दूसरे अंतर्राष्ट्रीय ड्रग माफिया से जुड़े हैं। यहां से हेरोइन, मार्फिन आदि मुंबई के रास्ते अंतर्राष्ट्रीय बाजार तक पहुंचता है। उत्तरी छोटानागपुर प्रमंडल में पहली बार 2006 में चतरा जिले में अफीम की खेती की विधिवत शुरुआत हुई। शुरुआती दौर में स्थानीय बाजारों में खपत के अलावा यहां की अफीम के खरीददार भी नेपाली माओवादी ही थे। 40 से 50 हजार रुपए किलो अफीम, एक लाख रुपए किलो ब्राउन शुगर और लाख-डेढ़ लाख रुपए प्रति किलो हेरोईन बेची जाने लगी।
ऐसे में प्रदेश सरकार को चौतरफा लड़ाई लडऩी पड़ रही है। यदि मादक पदार्थों की तस्करी और और उसके व्यवसाय को छोड़ भी दिया जाय तो माओवाद और अलगावादी ताकते चुनौती के रूप में सामने हैं। माओवादियों ने छत्तीसगढ़ सीमा के जिलों खास तौर पर बालाघाट में हथियार बनाने के कई अड्डे बना रखे हैं वहीं सिमी का जाल पूरे प्रदेश में फैल गया है। सिमी और माओवादियों को मदद देने वालो में भू माफिया और मालवा के मंदसौर इलाके से अफीम की तस्करी करने वाले लोग भी मोटी कीमत पर सहायता बेच रहे हैं। इनमें से कई सिमी और इंडियन मुजाहिद्दीन कार्यकर्ताओं पर अदालत में मुकदमे चल रहे हैं और ज्यादातर मामलों में गवाह सामने नहीं आ रहे हैं। इसीलिए मध्य प्रदेश सरकार ने महाराष्ट्र के मकोका की तर्ज पर मध्य प्रदेश में इन मामलों को जल्दी निपटाने के लिए विशेष अदालते बनाने के इरादे से एक विधेयक पारित तो कर लिया मगर केंद्र सरकार की सहमति अब तक नहीं मिल पाई है।
-धर्मवीर रत्नावत, मंदसौर
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के रजिस्टरों में मध्य प्रदेश का नाम अपराध बढऩे वाले राज्यों में काफी आगे हैं।
भारत सरकार के रिकॉर्ड में ही लिखा है कि सिर्फ 2009 में ही सिमी के लोगों ने नवंबर में तीन लोगों की हत्या की और पुलिस पर गोलियां चलाई। नवंबर में ही जबलपुर से सिमी के तीन बड़े हत्यारे पकड़े गए। अक्टूबर में इंदौर शहर से सिमी के पांच लोग पकड़े गए जिनमें से दो मोहम्मद शफीक और मोहम्मद युनूस महाकाल की नगरी उज्जैन के रहने वाले थे और अहमदाबाद विस्फोटों में शामिल थे। और तो और अक्टूबर 2009 में ही मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को लश्कर-ए-तैयबा की धमकी का पत्र मिला। 30 अक्टूबर 2009 को इंदौर जिले के अलग अलग ठिकानों से सात सिमी आतंकवादी पकड़े गए और इनकी सूचना केंद्र सरकार को भी दे दी गई थी।
मध्य प्रदेश में भोपाल छोड़ कर कहीं मुस्लिम बहुत आबादी वाले नहीं है। चंबल घाटी का आतंक खत्म हुआ लेकिन मध्य प्रदेश को अपना अभ्यारण्य बना लेने वाले आतंकवादियों से निपटना जरूरी है मगर उससे पहले यह सवाल भी करना जरूरी हैं कि साध्वी प्रज्ञा सिंह और सेना के कर्नल पुरोहित के खिलाफ आज तक तीन साल बीत जाने के बाद भी कोई अंतिम चार्ज शीट दाखिल नहीं की गई।
झारखंड में माओवादियों के सघन प्रभाव वाले इलाक़ों में सैकड़ों एकड़ ज़मीन पर अफीम की खेती हो रही है. झारखंड में नक्सलियों के कंधे पर अंतर्राष्ट्रीय ड्रग मा़फिया कई वर्षों से अपनी गोटी लाल कर रहे हैं. कई बार यह बात सामने आ चुकी है कि बिहार के मोहनिया और सासाराम के भूमिगत हेरोइन कारखानों को कच्चे माल की आपूर्ति झारखंड के माओवाद प्रभावित इलाक़ों से हो रही है. माओवादी दरअसल किसानों को अफीम की खेती के लिये प्रेरित करते हैं और उसे ब्राउन शुगर में परिणत कर ड्रग मा़फिया के हवाले कर देते हैं. ड्रग मा़फिया से उन्होंने अफीम से ब्राउन शुगर बनाने तक की तकनीक हासिल कर ली है. इसके बाद हेरोइन बनाने तक की प्रक्रिया मोहनिया और सासाराम में होती है. माओवादियों के गोला-बारूद और हथियारों की खरीद की अर्थव्यवस्था में इस धंधे का बड़ा योगदान होता है. माओवादी ही क्यों पूरे विश्व में ग़ैरकानूनी हथियारबंद हिंसक गतिविधियां ड्रग स्मगलिंग से चल रही है.
अफीम की खेती में होने वाले खर्च के साथ-साथ नक्सलियों ने ग्रामीणों को पुलिस से सुरक्षा भी मुहैया कराई. अंतत: स्थिति यह हो गई कि हज़ारीबाग और चतरा जि़ले के दो दजऱ्न से अधिक गांव में कऱीब 8 हज़ार हेक्टेयर भूमि पर अफीम की खेती ब़ेखौफ़ हो रही है. पुलिस प्रशासन को यह ठिकाना पता है.
इस ग़ैर क़ानूनी व्यवसाय में लागत की तुलना में मुनाफ़ा हज़ारों गुणा ज़्यादा है. कम लागत और बेतहाशा मुनाफ़े को देखकर पूरा का पूरा गांव अफीम की खेती करने में जुट गया. अफीम की पैदावार से नक्सलियों को बतौर लेवी कमीशन मिलने लगा. अफीम की खेती में होने वाले खर्च के साथ-साथ नक्सलियों ने ग्रामीणों को पुलिस से सुरक्षा भी मुहैया कराई. अंतत: स्थिति यह हो गई कि हज़ारीबाग और चतरा जि़ले के दो दजऱ्न से अधिक गांव में कऱीब 8 हज़ार हेक्टेयर भूमि पर अफीम की खेती ब़ेखौफ़ हो रही है. पुलिस प्रशासन को यह ठिकाना पता है. लेकिन वह कुछ नहीं कर सकती. चतरा जि़ले के पत्थलगड्?ड, गिद्धौर, तेतरिया, नोनगांव, जोरी, बलबलद्वारी आदि दजऱ्नों गांवों और हज़ारीबाग जि़ले के कटकमसांडी, ईचाक, बड़कागांव आदि प्रखंडों के 40 प्रतिशत से अधिक गावों में अफीम नोटों की बरसात कर रही है और माओवादियों की पूरी अर्थव्यवस्था की रीढ़ बनी हुई है. नक्सलियों के साथ ग्रामीणों के भी पौ बारह हैं. अफीम से आमदनी की तुलना में इसकी खेती में लागत लगभग शून्य है. पोस्ते के बीज की लागत दौ सौ से चार सौ रुपए प्रति किलो है. इसकी खेती में न सिंचाई की ज़रूरत है न खाद या किसी कृषि उपकरण की. हज़ारीबाग और चतरा जि़ले के पहाड़ी और पठारी क्षेत्रों में खरीफ या रबी फसलों की पैदावार आंशिक होने के कारण तंगहाली से जूझते कृषकों के लिए अफीम की खेती मुंह मांगा वरदान साबित हो रही है.
अफीम की पैदावार से हो रहे लाभ को देखते हुए कृषकों ने खरीफ या रबी फसलों से तौबा कर ली है. कहां 10 रुपए किलो चावल और कहां 50 हज़ार रुपए किलो अफीम. नक्सलियों की परोक्ष और प्रत्यक्ष सहभागिता के कारण यहां के अफीम का कारोबार मादक पदार्थों के अंतर्राष्ट्रीय नेटवर्क से जुड़ गया है. इसका एक बड़ा खरीदार पाकिस्तान की खु़फिया एजेंसी आईएसआई भी है और छोटानागपुर का अफीम, हेरोईन और ब्राउनशुगर बांग्लादेश भी जा रहा है. एक नक्सली सूत्र के अनुसार, सन्? 2007 के मई महीने में नेपाल-बिहार के सीमावर्ती जंगल में नेपाल, बिहार और झारखंड के माओवादियों की एक संयुक्त बैठक में झारखंड के माओवादियों के सामने, पाकिस्तानी खु़फिया एजेंसी आईएसआई को हेरोईन और ब्राउनशुगर बेचने का प्रस्ताव आया था. लेकिन झारखंड के माओवादियों ने इस डील को देशद्रोह की संज्ञा दी. आईएसआई से इस तरह की डील करने से इंकार कर दिया. आईएसआई ने अपने नेपाली एजेंटों के मार्फत झारखंड के माओवादियों को ब्राउनशूगर के बदले अत्याधुनिक हथियार देने की भी पेशकश की. लेकिन यहां के माओवादियों ने मना कर दिया. लेकिन यह विडंबना है कि परिष्कृत होने के लिए बिहार के डेहरी और सासाराम स्थित गुप्त कारखानों को बेची जा रही अफीम, हेरोईन ब्राउनशूगर और मार्फिन की शक्ल में आईएसआई के एजेंटों तक पहुंच रही है.
आईएसआई यह मादक पदार्थ नेपाल, कलकत्ता और बांग्लादेश के रास्ते मंगवा रहा है. हज़ारीबाग और चतरा जि़लों में पैदा हुई अफीम का एक थोक ग्राहक बिहार का डिहरी और सासाराम है. जानकारी के अनुसार सासाराम के एक गुप्त ग़ैरक़ानूनी कारखाने में अफीम को परिष्कृत करके मार्फिन तक बनाया जाता है. वैसे यहां की अफीम का बाज़ार कलकत्ता, यूपी, बिहार, कानपुर, महाराष्ट्र, बनारस और झारखंड के बेरमो, फुसरो, गोमिया, बोकारो है. अफीम और ब्राउनशुगर कलकत्ता के रास्ते बांग्लादेश और यहां से अरब देशों को भी भेजी जाती है. हजारीबाग से पटना-रांची जानेवाली नेशनल हाईवे के लाईन होटलों में भी इसे बेचा जाता है. नेशनल हाइवे पर इस मादक पदार्थ के ज़्यादातर खरीददार लम्बी दूरी के ट्रक चालक है. चालकों के अनुसार इसके सेवन से नींद नहीं आती है तथा मस्ती छा जाती है. इसे होटल कर्मचारी मुहैया कराता है अथवा बच्चे कपड़े के थैलों में इसे लिए फेरी लगाते हैं.
इन होटलों में ब्राउनशुगर की एक खुराक 50 रुपए प्रति पुडिय़ा है. इसे कभी भी सावधानी से देखा जा सकता है. लाइन होटलों के अलावा अफीम और ब्राउनशुगर हजारीबाग जि़ले के बरही चौक, चौपारण, डेमोटांड, इचाक, महराजगंज और चतरा के बंगरा मोड पर भी बेची जाती है. बिहार का गया जि़ला में भी यहां के मादक पदार्थों का बाज़ार है. ऐसा नहीं है कि अफीम के खेतों की तरफ़ झांकने से भी परहेज करने वाली पुलिस ने इन मादक पदार्थों की खुलेआम बिक्री के विरुद्ध प्रथम दृष्टया कोई क़ानूनी कार्रवाई नहीं की हो. लेकिन शायद ही किसी मामले में साक्ष्य प्रस्तुत किये गये हों. लिहाज़ा आरोपी अदालत से बरी होते रहे हैं. हजारीबाग और चतरा जि़लों में गत दो वर्षों में एनडीपीएस एक्ट के तहत्? दो दजऱ्न से ज़्यादा मामले विभिन्न थानों में दजऱ् हुए. 27 आरोपियों को पकड़ कर जेल भी भेजा गया. लेकिन साक्ष्य के अभाव में सभी बरी हो गए. पुलिस के इस बयान पर हैरत होती है कि जब्त किये गए ब्राउन शुगर को रांची स्थित प्रयोगशाला में मादक पदार्थ साबित नहीं किया जा सका. ज़ाहिर है अफीम की ग़ैरक़ानूनी पैदावार से हो रही बेतहाशा अवैध कमाई में नक्सलियों के साथ साथ अन्य रसूखवाले भी हिस्सेदार है. 2008 में हजारीबाग जि़ले के मुफसिल थाना क्षेत्र में एक लंगड़े व्यक्ति के साथ एक महिला को ब्राउनशुगर के साथ पकड़ा गया था. दोनों को जेल भी भेजा गया. पर दोनो ही जेल से छूट गए. इनके पास से जब्त ब्राउनशुगर को अदालत में ब्राउनशुगर साबित ही नहीं किया जा सका. यहीं नहीं 2005 में खादी का कुर्ता-पायजामाधारी एक व्यक्ति को इंडिका कार में ब्राउनशूगर के पैकेट के साथ गुप्त सूचना पर मुफसिल पुलिस ने पकड़ा था. इसे भी फौरी तौर पर जेल भेजा गया, पर यह भी रिहा हो गया. इसके पास से बरामद पदार्थ ब्राउन शुगर ही था, लेकिन अदालत में इसे प्रमाणित नहीं किया जा सका. ऐसे अनेक मामले हैं. जेल से छूट गए सभी आरोपी स्पॉट और सेंटर बदल कर अपने पुराने धंधे में लगे हैं. अफीम हेरोइन या ब्राउनशुगर बेचने या कैरियर के काम में अब युवतियों व महिलाओं को भी शामिल किया गया है.
कुछ दिन पूर्व 4 फरवरी को रांची में करोड़ों रुपये के ब्राउन शुगर के साथ पकड़े गए मनोज कुमार नामक अपराधी ने पुलिस और मीडिया को बताया कि इसका आपूर्तिकर्ता चतरा जि़ले का था. अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार तलाश चुके यहां के मादक पदार्थों का कारोबार अत्यंत द्रुतगति से फैल रहा है. दो वर्ष पूर्व अफीम की फसलों को नष्ट करने का पुलिस ने निर्णय लिया था. पुलिस ने सुदूरवर्ती ग्रामीण क्षेत्रों के साथ साथ शहर के नजदीक इचाक व बड़कागांव प्रखंड के ग्रामीण इलाक़ों में अफीम के लिए उगाई गई पोस्ते की फसल को छिटपुट नष्ट करना शुरू भी किया गया था लेकिन इससे माओवादियों की भवें टेढ़ी हो गई. पुलिस दुबक कर चुपचाप बैठ गई. नक्सलियों के हथियार खरीदने के कुल बजट में अफीम से मिलने वाली कमीशन का 80 प्रतिशत योगदान है. पुलिस के साथ मुठभेड में नक्सलियों की हज़ारों राउंड गोलियां खर्च होती हैं. एक थ्रीनॉट थ्री या वनफीटन गोली का दाम एक सौ से दो सौ रुपए हैं नक्सलियों के पास बेशक़ीमती इन्सास एके फोर्टी सेवन, एके फिफ्टी सिक्स, प्वाइंट नाइन एमएम, रॉकेट लांचर जैसे आधुनिक हथियारों के ज़ख़ीरे का सहारा अफीम ही है.
Tuesday, August 10, 2010
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