भारतीय जनता पार्टी में वही होता है जो आडवाणी चाहें। अगर आडवाणी जिसे नहीं चाहे वह गडकरी होता है। यह कहां तक सही है यह तो राम भक्त लालकृष्ण आडवाणी ही बता सकते हैं लेकिन भाजपा का इतिहास और अध्यक्ष नितिन गडकरी की वर्तमान स्थिति तो यही बयां करती है।
संघ ने भाजपा का अध्यक्ष नितिन गडकरी को बनवा तो दिया, लेकिन अब उसके सामने साफ़ हो गया है कि दिल्ली में बैठे अनंत कुमार, सुषमा स्वराज, वेंकैय्या नायडू, जेटली, राजनाथ सिंह और आखिऱ में आडवाणी उन्हें सफल नहीं होने देंगे. इन सब में गडकरी की उम्र राजनीति में छोटी है, लेकिन संघ गडकरी को सफल होते देखना चाहता है. गडकरी ने संघ को बताया है कि जब भी वह कुछ नया करना चाहते हैं तो ये लोग उनका विरोध करते हैं. संघ और गडकरी के सामने सवाल है कि वे इस स्थिति से कैसे निकलें.संघ की शाखाओं में स्वयंसेवकों को नेतृत्व क्षमता के बारे में सिखाया जाता है, नेतृत्व वही, जिसके पास निर्णय क्षमता हो. लेकिन फिलहाल तो स्वयंसेवक गडकरी में इसका अभाव दिखता है. गडकरी की बड़े नेताओं के बीच संतुलन साधने और पार्टी के सभी गुटों को खुश रखने की रणनीति संगठन पर भारी पड़ रही है. कड़े फैसले लेकर पार्टी को सही दिशा देने की बजाए गडकरी नेताओं के महत्वाकांक्षाओं के खेल में मोहरा बन रहे हैं.
आडवाणी एंड कंपनी ने गडकरी को पूरी तरह से अपने दबाव में ले लिया है और गडकरी बेबस हो उनके फैसलों को मानने भी लगे हैं. संसद सत्र शुरु होने से पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के भोजन के आमंत्रण पर भाजपा का कोई नेता नहीं जाएगा, यह फैसला लेते वक्त लालकृष्ण आडवाणी ने पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी से कोई राय मशवरा नहीं लिया. अरुण जेटली और सुषमा स्वराज से गुफ्तगू के बाद लालकृष्ण आडवाणी ने यह अहम फैसला लिया. भाजपा संसद में जातिगत जनगणना का विरोध नहीं करेगी, यह फैसला लेते हुए भी आडवाणी ने बातचीत तो दूर गडकरी को इसकी जानकारी तक नहीं दी. जब कि न ही आरएसएस और न ही गडकरी इसके पक्ष में थे. जाहिर है ये फैसले पार्टी अध्यक्ष की सहमति से नहीं हुए. पार्टी के संविधान और नियमों के मुताबिक अध्यक्ष का ही निर्णय अंतिम होता है. जबकि संघ चाहता था कि उमा भारती की पार्टी में वापसी हो और संजय जोशी को संगठन में महत्वपूर्ण पद दिया जाए, लेकिन आडवाणी कैंप के विरोध के कारण नितिन गडकरी ऐसा नहीं कर पाए. इसी तरह से संघ जिन्ना के समर्थक जसवंत सिंह की पार्टी में कतई वापसी नहीं चाहता था, लेकिन आडवाणी के दबाव में गडकरी को जसवंत सिंह को पार्टी में वापस लाना पड़ा. यह तो वर्तमान स्थिति है जबकि पूर्व में भी पार्टी में वही हुआ है जो आडवाणी ने चाहा है।
जब भाजपा ने एनडीए का निर्माण किया और लगा कि सरकार बन सकती है, तो सवाल आया कि प्रधानमंत्री कौन बनेगा. जार्ज फर्नांडिस जैसे लोगों का मूड भांप आडवाणी जी ने बयान दिया कि अटल जी ही प्रधानमंत्री बनेंगे. आडवाणी भी चाहते थे और पार्टी के नेता भी चाहते थे कि आडवाणी प्रधानमंत्री बनें, पर उनका चेहरा कट्टरपंथी का चेहरा था, जिसे भाजपा के अलावा एनडीए में शामिल दूसरे दल किसी क़ीमत पर स्वीकार नहीं करने वाले थे. आडवाणी के हाथ से प्रधानमंत्री पद फिसल कर अटल जी के पास चला गया, क्योंकि वह चेहरा न केवल सार्वजनिक था, बल्कि लोकप्रिय भी था. अटल जी के प्रधानमंत्री बनने के साथ उन्हें ब्रजेश मिश्र, प्रमोद महाजन और रंजन भट्टाचार्य ने घेर लिया. शायद यह आडवाणी जी को अच्छा नहीं लगा. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के बहुत से विश्वसनीय कार्यकर्ता मानते हैं कि यही वह समय था, जब आडवाणी जी ने अटल जी और पार्टी के साथ संघ से भी बदला लेने की जाने या अनजाने कोशिश शुरू कर दी. अटल जी यदि सरकार आडवाणी जी को चलाने देते तो शायद यह न होता, पर सरकार तो ब्रजेश मिश्र, प्रमोद महाजन और रंजन भट्टाचार्य के क़ब्ज़े में चली गई थी.
संघ के समर्पित नेताओं का कहना है कि आडवाणी जी ने गृहमंत्री रहते हुए एनडीए के कॉमन मिनिमम प्रोग्राम को स्वीकार किया और पार्टी का प्रोग्राम छोड़ दिया. सालों से राम मंदिर बनाने की घोषणा करने वाली पार्टी का आडवाणी जैसा नेता कहने लगा कि जब भाजपा का बहुमत अकेले दम पर होगा, तभी मंदिर बनाया जा सकता है. संघ के लोगों का कहना है कि आडवाणी घुट रहे थे, उन्हें लगता था कि सब बनाया उन्होंने है और उन्हें ही मौक़ा नहीं मिला. इसीलिए किसी दूसरे दल ने अपने दल का एजेंडा नहीं छोड़ा, लेकिन भाजपा ने छोड़ दिया, जिसके पीछे केवल आडवाणी का दिमाग़ था. इसमें उन्हें प्रमोद महाजन का साथ मिला. संघ के लोगों का कहना है कि आडवाणी चाहते तो अटल जी लालकिले से घोषणा कर सकते थे कि मैं गठबंधन का प्रधानमंत्री हूं, पर पार्टी अलग है. इससे पार्टी पर लोगों का विश्वास नहीं टूटता और न कार्यकर्ता नाराज़ होता कि भाजपा ने मंदिर मुद्दा तो छोड़ ही दिया है.
आडवाणी जी ने अपनी नई टीम बनाई, जिसके लेफ्टिनेंट अरुण जेटली, अनंत कुमार, वेंकैय्या नायडू, सुषमा स्वराज, यशवंत सिन्हा और नरेंद्र मोदी थे. अरुण जेटली और नरेंद्र मोदी रणनीति बनाने लगे और पार्टी के भीतर का सत्ता और वैचारिक समीकरण बदलने लगा. आज संघ के लोग कहते हैं कि पार्टी की दुर्दशा का मुख्य कारण अरुण जेटली हैं, जो विचार को जीवन से अलग मानते हैं. संघ के लोगों को अफसोस है कि एक ओर दीनदयाल उपाध्याय जैसा व्यक्ति उनकी पार्टी बना रहा था, जिसका आचार, विचार और व्यवहार एक था, आज अरुण जेटली पार्टी बना रहे हैं, जिनके आचार, विचार और व्यवहार में कोई समानता नहीं है.
संघ में अपना जीवन देने वाले स्वयं सेवकों का कहना है कि अरुण जेटली की रणनीति के परिणामस्वरूप विचारवान और संघ के प्रति निष्ठावान लोग पार्टी में हाशिये पर चले गए या पार्टी से बाहर जाने के लिए मजबूर हो गए. वहीं पार्टी में जनाधार विहीन, एरिस्ट्रोकेट व पश्चिमी शैली में जीवन जीने वाले नेता स्थापित हो गए. ये ऐसे लोग हैं, जो ऐशोआराम में पल रहे हैं और विचारधारा से दूर हैं. आडवाणी, नरेंद्र मोदी और अरुण जेटली की वजह से जो लोग भाजपा के दृश्य से ग़ायब हो गए, उनमें पहला नाम हिमाचल के पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार का है, जिन्हें भारत के सर्वाधिक ईमानदार मुख्यमंत्रियों में माना जाता है. जम्मू कश्मीर में चमन लाल गुप्त हाशिये पर चले गए हैं. उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह को पार्टी छोडऩी पड़ी और लालजी टंडन ख़ामोश हो गए हैं. झारखंड में बाबूलाल मरांडी ने पार्टी छोड़ दी और करिया मुंडा ने पार्टी मामलों में रुचि लेनी बंद कर दी है. मध्य प्रदेश में पहले उमा भारती के ज़रिए सुंदरलाल पटवा को किनारे कराया, फिर उमा भारती को ही पार्टी से निकाल दिया. अब शिवराज सिंह चौहान उनके अपने आदमी हैं. महाराष्ट्र में तो सारे ग्रासरूट नेता प्रमोद महाजन के लिए हाशिये पर फेंक दिए गए, केवल गोपीनाथ मुंडे बच गए, क्योंकि वह प्रमोद महाजन के रिश्तेदार थे. गुजरात में पहले शंकर सिंह बाघेला को निकालने के लिए स्थितियां बनाईं. बाद में हीरेन पंड्या का नंबर आया. राजस्थान में भैरो सिंह शेखावत को दिल्ली लाकर वसुंधरा राजे के लिए मैदान खुला छोड़ दिया गया. आंध्र प्रदेश में वेंकैय्या नायडू के लिए पूरी पार्टी की बलि चढ़ा दी गई. आज वसुंधरा राजे, राजनाथ सिंह, वेंकैय्या नायडू, अनंत कुमार इन तीनों के मुख्य हथियार बने हुए हैं.
भाजपा में लालकृष्ण आडवाणी, नरेंद्र मोदी और अरुण जेटली का डेडली काम्बीनेशन है. लालकृष्ण आडवाणी का मानना था कि यदि उन्हें प्रधानमंत्री घोषित कर चुनाव लड़ा जाएगा तो देश भाजपा को वोट देगा. इस विचार को अरुण जेटली ने अपने तर्कों से पुष्ट कर आडवाणी के मन की आखिऱी हिच दूर कर दी. लेकिन जनता ने आडवाणी के चेहरे को अटल बिहारी वाजपेयी के चेहरे से बेहतर नहीं माना.
नब्बे में जब आडवाणी ने अटल बिहारी वाजपेयी की जगह लेने के लिए अपने लोगों की टीम बनाई थी, तब इनका दर्जा लेफ्टिनेंट का था. आज जब आडवाणी बूढ़े हो गए हैं तो उनके सारे लेफ्टिनेंट जनरल हो गए हैं और आडवाणी उनकी बात कहने वाले नेता मात्र रह गए हैं. इस तिकड़ी ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और बीजेपी के रिश्ते की कडिय़ों को भी प्रभावित किया है.
संघ के लोगों का कहना है कि भाजपा की असली ताक़त वे हैं तथा चुनाव के समय बूथ तक का मैनेजमेंट वे करते हैं. इसीलिए भाजपा की संरचना में संगठन मंत्री का बड़ा महत्व है, जो संघ द्वारा भेजा व्यक्ति होता है. इस पद पर सुंदर सिंह भंडारी, गोविंदाचार्य, नरेंद्र मोदी, संजय जोशी जैसे व्यक्ति रह चुके हैं और आज रामलाल संगठन मंत्री हैं. इस पद की हैसियत को बर्बाद करने की कहानी भी दिलचस्प है. आज तो संगठन मंत्री डरा हुआ है, क्योंकि वह अपने पहले के दो संगठन मंत्रियों का हश्र देख चुका है. भाजपा के केंद्रीय कार्यालय में ढाई करोड़ रुपये की चोरी हुई. इसकी जांच की मांग न भाजपा में किसी ने की और न भाजपा के संगठन मंत्री रामलाल ने, जो बुनियादी तौर पर संघ के प्रतिनिधि हैं. ऐसा लगता है मानों पूरा तंत्र सडऩे लगा है.गोविंदाचार्य को संघ ने अपना प्रतिनिधि बना भाजपा में संगठन मंत्री के तौर पर भेजा. गोविंदाचार्य के ऊपर संघ को पूरा भरोसा था कि वह भाजपा को भटकने नहीं देंगे. गोविंदाचार्य भाजपा को हमेशा संघ की विचारधारा पर चलने के लिए प्रेरित भी करते थे और दबाव भी डालते थे. मज़बूत होती तिकड़ी को गोविंदाचार्य का तरीक़ा पसंद नहीं आया और उन्होंने अटल जी का वैसे ही इस्तेमाल किया, जैसे बाद में उमा भारती का किया था. गोविंदाचार्य संघ के व्यक्ति थे, लेकिन भाजपा में रहते उनका चेहरा सार्वजनिक हो गया और वह कार्यकर्ताओं में सबसे ज़्यादा लोकप्रिय हो गए. गोविंदाचार्य को हटाने की रणनीति बनी और उन पर एक महिला राजनेता से नज़दीकी का आरोप लगाया गया. अचानक अख़बारों में गोविंदाचार्य और उस महिला राजनेता के संबंधों की खबरों की बाढ़ आ गई. गोविंदाचार्य इस घटिया राजनैतिक हमले से इतने आहत हो गए कि उन्होंने भाजपा से अपने को दूर कर लिया. यह घटना 1999 में हुई.
संघ ने संजय जोशी को 2001 में भाजपा का राष्ट्रीय संगठन मंत्री बना दिया गया.संजय जोशी लो प्रोफाइल, साधारण रहन-सहन में विश्वास करने वाले, जैसा प्रचारक करते हैं या समाजवादी और साम्यवादी रहते हैं, साध्य के साथ साधन को भी उतना ही महत्व देते हैं, प्रचार से दूर रहने वाले, सबसे मिलने वाले और सबकी सुनने वाले, लॉबी बनाने के खि़लाफ़ तथा ग्रासरूट काम में विश्वास करने वाले व्यक्तिहैं. उन्होंने संगठन मंत्री रहते हुए भाजपा पर संघ के विचारों पर चलने के लिए हमेशा दबाव बनाए रखा. भाजपा कार्यकर्ता अध्यक्ष के यहां कम, संजय जोशी के यहां ज़्यादा जाता था. इसी बीच आडवाणी पाकिस्तान गए और उन्होंने लाहौर में जिन्ना को लेकर मशहूर लाइन लिखी. संघ ने जोशी से कहा कि वह आडवाणी से इस्तीफ़ा ले लें. संजय जोशी ने बिना हिचक आडवाणी से अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा ले लिया. संजय जोशी ने संघ की बात मान अपने लिए राजनैतिक क़ब्र खोद ली. अचानक भाजपा के मुंबई अधिवेशन में एक सीडी बंटी. इस सीडी में एक व्यक्ति एक महिला के साथ था तथा अफवाह फैली कि यह व्यक्ति भाजपा का संगठन मंत्री संजय जोशी है. संजय जोशी ने भी गोविंदाचार्य की तरह तत्काल अपना त्यागपत्र दे दिया. अब जाकर तथ्य सामने आ रहे हैं और सीडी की सच्चाई भी सामने आ रही है.संघ ने भाजपा का अध्यक्ष नितिन गडकरी को बनवा तो दिया, लेकिन अब उसके सामने साफ हो गया है कि दिल्ली में बैठे अनंत कुमार, सुषमा स्वराज, वेंकैय्या नायडू, जेटली, राजनाथ सिंह और आखिऱ में आडवाणी उन्हें सफल नहीं होने देंगे.
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Thanks bhaiya for such gr8 article
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