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भेड़ाघाट

Tuesday, August 10, 2010

भ्रष्टाचार उगा मनरेगा में

मध्य प्रदेश में महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के तहत उजाड़ और बीहड़ वनक्षेत्रों की बंजर भूमि पर वैकल्पिक ऊर्जा ईंधन या बायो फ्यूल उत्पादन के लिए जेट्रोफा की खेती करने का काम बड़ी जोर शोर के साथ शुरू किया गया था लेकिन अधिकारियों की करतुतों के कारण जेट्रोफा तो नहीं उग पाया,बल्कि उसकी जगह भ्रष्टाचार जरूर उगा और बड़ी तेजी से पनप भी। मनरेगा की गोद में पैदा हुआ भ्रष्टाचार का पौधा अब बट वृक्ष हो गया है और इसमें आधा दर्जन से अधिक आईएएस अधिकारियों को अपनी चपेट में ले लिया है।
राजीव गांधी गलत थे जो उन्होंने यह कहा कि विकास के लिए ऊपर से जो पैसा आता है उसका 10 पैसा ही नीचे पहुंचता है. मप्र के अधिकारी यह साबित कर रहे हैं कि रूपये में दस पैसा नहीं बल्कि 25 पैसा नीचे पहुंचता है. आज राजीव गांधी जिन्दा होते और अपनी ही पार्टी की महत्वाकांक्षी परियोजना नरेगा के तहत पैसे की बंदरबाद देखते तो निश्चित रूप से वे अपना जुमला ठीक करते. लेकिन रूकिये, एक दिक्कत है. यह जो 25 पैसा नीचे तक जा रहा है वह तथाकथित विकास का पैसा नहीं है. यह सीधे तौर पर ग्रामीण लोगों के आर्थिक उत्थान के लिए खोजा गया जादुई फार्मूले का पैसा है. यह उस महान विचार से निकला पैसा है जो कहता है कि ग्रामीण इलाकों में अगर रोजगार हो तो शहर की ओर पलायन कम होगा और ग्रामीण इन्फ्रास्ट्रक्चर को भी मजबूत किया जा सकेगा. लेकिन जब इस महान विचार पर अमल की बारी आयी तो सूखे के दिनों में मप्र में सड़कें खुदवाने का काम सबसे ज्यादा किया गया. अपनी ही खेत में विकास का हल चलाने के लिए भी पैसा दिया गया. कागज पूरा किया गया. बही-खाते बनाये गये और जितना पैसा लोगों को बांटा गया उसका तीन गुना अपने पास रख अधिकारियों ने अपना विकास सुनिश्चित कर लिया.
वैसे देखा जाए तो महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना जब से मप्र में लागू हुई है उसमें भ्रष्टाचार ही भ्रष्टाचार हुआ है,लेकिन सबसे अनोखा भ्रष्टाचार हुआ सीधी में। सीधी जिले में तत्कालीन कलेक्टर सुखवीर सिंह और सीईओ चंद्रशेखर बोरकर ने वहां लगाए गए जैट्रोफा के पौधों को तेजी से बढ़ाने के नाम पर ढाई करोड़ के इंजेक्शन लगवा दिए। जब इस मामले की जांच कराई गई तो पूरी योजना केवल कागजों पर ही मिली। इस मामले में तत्कालीन कलेक्टर सुखवीर सिंह और सीईओ चंद्रशेखर बोरकर को दोषी बनाया गया है। इनके अलावा मनरेगा में भिंड के कलेक्टर एस.एस. अली, भिंड के सीईओ आर.पी. भारती, टीकमगढ़ के कलेक्टर के.पी. राही व एम.सी. वर्मा, छतरपुर के सीईओ एस.सी. शर्मा, (सभी तत्कालीन) ने करोड़ों रुपए का भ्रष्टाचार किया है। इन अफसरों के भ्रष्टाचार और गड़बडिय़ों की शिकायत पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग (मप्र रोजगार गारंटी परिषद) तक पहुंची। यहां तक कि विधानसभा में भी इन अफसरों की गड़बडिय़ों को लेकर सवाल उठाए गए और ध्यानाकर्षण लगा। जनप्रतिनिधियों ने इन अफसरों पर अनुशासनात्मक कार्रवाई की मांग की, लेकिन इतनी उठापटक के बाद भी आज तक कोई कार्रवाई नहीं हुई। पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग ने इन अफसरों पर अनुशासनात्मक कार्रवाई करने के लिए जीएडी को लिखा और इनके द्वारा किए गए भ्रष्टाचार की जानकारी दी गई, लेकिन उसने तो कार्रवाई करने के बजाय दोषियों के नाम तक छिपा लिए। वह भी उस मुख्यमंत्री के शासन काल में जिसने अपना पूरा समय प्रदेश के विकास के लिए समर्पित कर दिया है।
उल्लेखनीय है 2005 में जब केन्द्र सरकार की बहुप्रतीक्षित मनरेगा योजना मध्यप्रदेश में लागू हुई तब से ही इस दुधारू याजना का दोहन करने के लिए अधिकारी अपनी पसंद की जगह पाने में जुट गए। शरूआत हुई पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग के सचिव वसीम अख्तर से। इसके पीछे जो कहानी उभरकर सामने आई है उसके अनुसार श्री अख्तर जब ग्वालियर में कलेक्टर थे उस दौरान उनकी और भाजपा के नेता नरेन्द्र सिंह तोमर की दोस्ती हो गई। समय के बदलाव के साथ मध्यप्रदेश में भाजपा सत्ता में आई और नरेन्द्र सिंह तोमर को ग्रामीण विकास मंत्री बनाया गया। मंत्री बनते ही केन्द्र से आई नरेगा योजना की कमान वसीम अख्तर को दिलाने के लिए श्री तोमर ने सरकार से पहल की और श्री अख्तर पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग के सचिव बना दिए गए। बताते है इसके पीछे शिवराज सिंह चौहान की भी सहमति थी क्योंकि विदिशा में कलेक्टरी के दौरान से ही दोनों के अच्छे संबंध है और इसका लाभ उन्हें मिला भी। उनके कार्यकाल के दौरान सीधी में लगभग सौ करोड़ के भ्रष्टाचार का मामला भी प्रकाश में आया था जिसकी जांच 2007-08 में 8 सहायक इंजीनियरों और 32 अन्य इंजीनियरों ने की थी जहां प्लांटेशन, सड़क निर्माण आदि में व्यापक भ्रष्टाचार बताया गया था बावजूद इसके मामला दबा हुआ है।
मनरेगा में भ्रष्टाचार की कहानी शुरू होती है सीधी जिले से। सीधी जिले में वर्ष 2005-06, 2006-07 और 2007-08 में राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना में भारी भ्रष्टाचार हुआ था। वर्ष 2006-07 में राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत सीधी जिले में ग्राम पंचायतों के माध्यम से 255.87 करोड़ की लागत के 32 हजार 299 कार्य संपादित कराए गए थे। लेकिन जिला सीधी में 155 कार्य बिना प्रशासकीय एवं तकनीकी स्वीकृति के शुरू करा दिए गए। वहीं 38.48 लाख के 41 कार्य ऐसे हो गए, जो कार्यस्थल के निरीक्षण के बाद सत्यापित नहीं हो सके। ऐसे कई और काम कराए गए, जिनमें बाद में वसूली योग्य राशि की जानकारी सामने आई। उसी दौरान सुखबीर सिंह के खिलाफ जिले में जेट्रोफा पौधरोपण का कार्य अवैध कंपनियों से कराने का आरोप है। इस पर जांच भी की गई और अभी उनका प्रकरण चल रहा है। सिंह ने जेट्रोफा बीज की सप्लाई, पौधों की खाद, कीटनाशक दवाओं और ग्रोथ हार्मोन्स के छिड़काव का काम एकमात्र फर्म ओम सांई बायोटेक, रीवा से कराया और भुगतान स्व-सहायता समूहों से करवाया। जबकि कंपनी के पास न तो टिन नं. है और न ही रासायनिक दवा बेचने का पंजीयन। जानकारी के अनुसार तत्कालीन सीधी कलेक्टर सुखवीर सिंह और मुख्य कार्यपालन अधिकारी चंद्रशेखर बोरकर ने ज्योट्रफा वनस्पति जिससे की बायोडीजल उत्पादन के लिए पूरे विश्व में शोध कार्य चल रहा था। इन दो अधिकारियों ने स्वयं निर्णय लेकर इनको कतिपय हार्मोंस के नाम से उत्पादन बढ़ाने हेतु इंजेक्शन आदि डलवाने की व्यवस्था कराई। जिसमें लगभग 18 से 20 करोड़ का व्यय दर्शाया। जांच के बाद पता चला कि उक्त राशि मजदूरों की मजदूरी थी जिसे नरेगा के तहत काम करने पर उन्हें मिलता। इस पर एक जांच समिति गठित की गई थी, जिसकी जांच रिपोर्ट भी शासन को सौंपी जा चुकी है। यह जांच रिपोर्ट सामान्य प्रशासन विभाग के पास है।
सामान्य प्रशासन विभाग इन अफसरों के बचाव के लिए यह तर्क दे रहा है कि पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग ने उन्हें इन कलेक्टरों व सीईओ की गड़बडिय़ों को लेकर कोई जानकारी नहीं दी है। जीएडी का कहना है कि उन्हें सीधी के तत्कालीन कलेक्टर सुखवीर सिंह और तत्कालीन सीईओ चंद्रशेखर बोरकर के संबंध में ही जानकारी मिली है इसीलिए हमने इन पर अब तक कोई कार्रवाई नहीं की। जीएडी का यह भी तर्क है कि हमने इन दोनों अफसरों पर कार्रवाई के लिए पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग को प्राप्त सबूतों को एक तय प्रोफार्मा में मांगा है, लेकिन विभाग उपलब्ध ही नहीं करवा रहा है।
पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग (रोजगार गारंटी योजना परिषद) का कहना है कि इन तमाम अधिकारियों के खिलाफ प्राप्त शिकायतों, जांचों और प्राप्त सबूत जीएडी को उपलब्ध करवा दिए हैं। जिन पर कार्रवाई करना जीएडी का काम है। इन अफसरों के संबंध में रोजगार गारंटी योजना परिषद स्तर पर किसी तरह की कार्रवाई लंबित नहीं है। पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग को सीधी के तत्कालीन कलेक्टर सुखवीर सिंह और तत्कालीन सीईओ चंद्रशेखर बोरकर के संबंध में जीएडी से बार-बार चि_ियां मिल रही हैं, लेकिन उनका जवाब अब तक नहीं दिया गया है।
एस.एस. अली पर भिंड जिले में राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना में नियम विरुद्ध क्रय संबंधित गड़बड़ी के आरोप हैं। इसकी जांच के लिए 24 जुलाई 2009 को जांच दल गठित किया गया था। जांच के दौरान प्रथम दृष्टया पाया गया कि वित्तीय अनियमितताएं हुई हैं। प्रशासकीय अनुमोदन के बाद अली के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई का प्रस्ताव/ आरोप पत्र सामान्य प्रशासन विभाग के सचिव को भेजा गया। अब यहां पर आगे की कार्रवाई अटकी हुई है। के.पी. राही पर भी टीकमगढ़ जिले में राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना में नियम विरुद्ध क्रय संबंधित गड़बड़ी के आरोप हैं। इसलिए उनके खिलाफ विभाग ने 6 नवंबर 2009 को अनुशासनात्मक कार्रवाई का प्रस्ताव प्रशासकीय अनुमोदन पश्चात सामान्य प्रशासन विभाग को भेजा था, जहां सिर्फ खानापूर्ति की गई। इसके बावजूद अब तक न तो इस बारे में कोई कार्रवाई होती दिख रही है और न ही किसी भी तरह की हलचल। हर कोई इसे दबाने में जुटा है।
सूत्रों के अनुसार पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग द्वारा कराई गई जांच में टीकमगढ़ में नरेगा के तहत आई राशि में से करीब 40 लाख रुपए तथा भिंड में करीब 30 लाख रुपए की खरीदी की बात सामने आई है। कलेक्टर व जिला पंचायत सीईओ ने अपने स्तर पर स्थानीय जरूरतों के आधार पर दरियों सहित अन्य सामान की खरीदी मनमाने दामों कर ली। जिला प्रशासन की जिम्मेदारी मॉनीटरिंग की है लेकिन इसके विपरीत दोनों जिलों में कलेक्टर और जिला पंचायत सीईओ की मंजूरी से खरीदी कर ली गई।
यही नहीं अधिकारियों की मिली भगत का ही परीणाम है औद्योगिक उपक्रमों ने भी सरकार को चूना लगाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है। प्रदेश में वैकल्पिक ऊर्जा ईंधन या बायो फ्यूल उत्पादन के लिए उजाड़ और बीहड़ वनक्षेत्रों में रतनजोत (जेट्रोफा) की खेती करने के लिए कई औद्योगिक उपक्रमों ने राज्य सरकार से बड़े-बड़े वायदे किए थे और राज्य सरकार ने उन पर भरोसा भी कर लिया था, लेकिन किसी भी उपक्रम ने रतनजोत का एक पौधा भी लगाने का काम नहीं किया है. मध्य प्रदेश सरकार ने बायो डीजल उत्पादन की महत्वाकांक्षी औद्योगिक परियोजनाओं के लिए आठ बड़ी औद्योगिक कंपनियों से लगभग 40000 करोड़ रुपयों के मेमोरेंडम ऑफ अंडरस्टेडिंग अर्थात सहमति पत्र प्राप्त किए थे. सरकार ने इन कंपनियों को राज्य के वनक्षेत्रों में खाली पड़ी भूमि और उजाड़ वनक्षेत्र जेट्रोफा की खेती के लिए रियायती दर पर आवंटित भी कर दी थी. लगभग आठ हजार हेक्टेयर से ज़्यादा वनभूमि इन कपंनियों को इसलिए दी गई थी, ताकि वे अपने वायदे के अनुसार रतनजोत (जेट्रोफा) की खेती कर सकें और उसका उपयोग बायो डीजल बनाने में करें, लेकिन वनभूमि लेने के बाद किसी ने भी उस पर न तो खेती शुरू की है और न ही बायो डीजल उत्पादन के लिए प्लांट लगाने के लिए कोई तैयारी शुरू की है. इससे लगता है कि राज्य में पूंजी निवेश और औद्योगिक विकास के राज्य सरकार के सभी प्रयास केवल कागज़़ी कार्यवाही तक सिमटकर रह गए हैं.
महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) में भ्रष्टाचार साबित होने के बाद भी सामान्य प्रशासन विभाग (जीएडी) प्रदेश के सात दागी आईएएस व डिप्टी कलेक्टर रैंक के अफसरों को बचाने में जुटा है। राज्य शासन के इस रवैए से नाराज होकर मनरेगा की शिकायत दिल्ली में केंद्र सरकार के समक्ष की है। 50 पेज की इस रिपोर्ट में मनरेगा हुए भ्रष्टाचार को लेकर शिकायत की गई है। प्रदेश के सात जिलों में गरीब जनता के रोजगार के लिए आए करोड़ो रुपयों को मनमाने तरीके से लुटाने वाले 7 अफसर शान से घूम रहे हैं। महीनों पहले इनके भ्रष्टाचार की शिकायत को पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग और मप्र राज्य रोजगार गारंटी परिषद ने भी सही पाया। दोनों ने सबूतों के साथ मामला सामान्य प्रशासन विभाग को कार्रवाई के लिए सौंपा लेकिन वह एड़ी-चोटी का जोर लगाकर इसे दबाने में लगा हुआ है। इसके लिए उसने कार्यवाही का लिखने वाले विभागों को इतने पत्र लिखे कि मामला पेचीदा हो गया। इधर दोनों विभागों में भी अफसर आते जाते रहे और इन्होंने भी कार्यवाही के लिए ठोस जवाब नहीं दिए। अब मामला दबाने के लिए जीएडी के अफसर राज्य सूचना आयोग से भी टकराव के लिए तैयार है।
सचिव, सामान्य प्रशासन विभाग अलका उपाध्याय को भ्रष्ट कलेक्टरों और सीईओ (आईएएस) पर कार्रवाई करना है, लेकिन चूंकि ये खुद भी आईएएस हंै, इसलिए इन पर कार्रवाई करने के बजाय इन्हें बचाने में लगी हुई हैं। मप्र राज्य सूचना आयोग को भी इन्होंने बार-बार झूठी जानकारी दी और गुमराह किया। जब सूचना आयोग ने इन्हें कड़े शब्दों में जानकारी देने के लिए लिखा तो इसके खिलाफ उन्होंने हाईकोर्ट में अपील दायर करने के संबंध में सूचना आयोग को पत्र लिख दिया। इस पर सूचना आयोग ने एक बार फिर कड़े शब्दों में पत्र लिखा कि चूंकि आयोग खुद एक सिविल कोर्ट है, अत: इसके निर्णय को कहीं चुनौती नहीं दी जा सकती। आयोग के इस पत्र से जीएडी के पैर तले जमीन खिसक गई। लेकिन इस बार फिर एक पत्र लिखा गया है, जिसके अनुसार जीएडी, हाईकोर्ट में सूचना आयोग के निर्णय को चुनौती देने के लिए जनहित याचिका दायर करने जा रहा है। इसके लिए एक कमेटी भी गठित कर दी गई है। विभाग के प्रमुख सचिव व विकास आयुक्त आर. परशुराम, सचिव अजय तिर्की और मप्र राज्य रोजगार गारंटी परिषद के सीईओ शिव शेखर शुक्ला, सभी आईएएस हैं। इन्हें जीएडी की सचिव अलका उपाध्याय और अन्य अफसरों ने सीधी के तत्कालीन कलेक्टर सुखवीर सिंह और सीईओ चंद्रशेखर बोरकर के बारे में तय प्रोफार्मा में जानकारी उपलब्ध कराने के लिए करीब 15 चि_ियां लिखीं, लेकिन आर. परशुराम, अजय तिर्की व रोजगार गारंटी के सीईओ ने इनके जवाब देने तक की भी जेहमत नहीं उठाई। जीएडी के पत्राचार से परेशान होकर पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग के सचिव अजय तिर्की को रोजगार गारंटी परिषद को अर्ध -शासकीय पत्र लिखना पड़ा। अजय तिर्की के अर्धशासकीय पत्र का भी जवाब नहीं मिला है। यानी जीएडी, पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग और रोजगार गारंटी परिषद सभी की मिलीभगत से गरीब और बेसहारा जनता के नाम पर केंद्र से आवंटित करोड़ों रुपए का भ्रष्टाचार करने वाले अफसरों पर कोई कार्रवाई नहीं हो पा रही है।
उल्लेखनीय है कि भोपाल में आईएएस दंपत्ति के यहां पड़े छापे के बाद लोकायुक्त सक्रिय हो गया है. उसकी सक्रियता का असर यह है कि एक बार फिर प्रदेश के तमाम आईएएस के भ्रष्टाचार की फाइलों के पन्ने पलटे जाने लगे हैं. इन फाइलों में सतना कलेक्टर सुखबीर सिंह सहित तीस आईएएस अफसरों पर जांच की कार्यवाही अब तेज होगी. पता तो यह भी चला है कि सतना कलेक्टर कि फाइल पर चर्चा होनी है. जिन आईएएस अफसरों पर लोकायुक्त की जांच चल रही है उन अफसरों पर बेईमानी, सरकार को धोखा देने जैसे इल्जाम हैं। इनमें से अधिकांश अफसर तो मंत्रियों की पसंद के हैं। लोकायुक्त जांच के दायरे में आबकारी आयुक्त अरुण कुमार पांडे, प्रभात पाराशर आयुक्त जबलपुर, मनीष श्रीवास्तव कलेक्टर सागर, लोक निर्माण विभाग के सचिव मोहम्मद सुलेमान हैं तो विवेक अग्रवाल और एसके मिश्रा, जो कि मुख्यमंत्री के सचिवालय में कार्यरत हैं, भी जांच के घेरे में हैं।
रोजगार गारंटी योजना में सीधी के कलेक्टर रहे सुखवीर सिंह, संजय गोयल, डिंडोरी कलेक्टर चंद्रशेखर बोरकर, छिंदवाड़ा कलेक्टर, निकुंज श्रीवास्तव, भिंड कलेक्टर विवेक पोरवाल सहित अन्य जांच के घेरे में हैं। मनीष श्रीवास्तव, जिलाध्यक्ष जिला शिवपुरी पर त्रैमासिक, अर्द्धवार्षिक परीक्षा के प्रश्न-पत्र की छपाई में घोटाले का आरोप है। अरुण कुमार पांडे पर अधिकारियों की मिलीभगत से दो करोड़ रुपए का ठेकेदार को लाभ देने का आरोप है।
वैसे भी हमारे देश में आईएएस अधिकारी होना फायदे का सौदा है. उसका लालन-पालन और पोषण कुछ ऐसा होता है कि वह हर प्रकार के भ्रष्टाचार के मूल में होता है लेकिन उसका नाम कहीं नहीं आता. अगर कागज की अंतिम प्रमाण हैं तो आईएएस अधिकारी कागजों के साथ खेलना सबसे बेहतर जानता है. फिलहाल तो मप्र सरकार और दूसरे संकटों में उलझी हुई है इसलिए उससे यह उम्मीद करना कि वह नरेगा जैसे छोटे-मोटे मामले में कोई खास रूचि लेगी, ठीक नहीं लगता. यह बहस किनारे रख दें कि नरेगा से जिस गांव के इन्फ्रास्ट्रकर को विकसित करने की बात की जा रही है उसे उसकी जरूरत है भी या नहीं. हम मान लेते हैं कि नरेगा गांव में नयी बयार लेकर पहुंचा है. लेकिन इस बयार में क्या कुछ गुल खिल रहे हैं इसे तो जानना ही चाहिए.
मध्य प्रदेश में नरेगा योजना पूरी तरह से नौकरशाहों के हाथ में है। मुख्य सचिव सशक्त समिति के अध्यक्ष हैं। जॉब कार्ड खरीदे जाने के भी कई मामले हैं। छतरपुर जिले की राजनगर तहसील के कन्हैया अहिरवार की तकलीफ यह है कि वर्ष 2008 में उसे पुलिया निर्माण के काम में लगाया गया लेकिन मजदूरों का भुगतान आज तक नहीं हुआ। सिवनी जिले के कुई विकास खंड में ठेकेदार कार्ड किराए पर लेकर योजना में काम कर रहे हैं। कई स्थानों पर जॉब कार्ड सरपंच के कब्जे में होने की शिकायतें भी मिलती रही हैं। मजदूरी की दर भी अलग-अलग है। कई लोग शिकायत करते हैं कि पूरे सौ दिन भी काम नहीं मिल पाता।
विकास संवाद केन्द्र के प्रमुख सचिन जैन मानते हैं कि नरेगा के बारे में किए गए अध्यान में यह लक्ष्य उभर कर सामने आया कि योजना में भ्रष्टाचार भी काफी है। आधे से ज्यादा जॉबकार्ड धारकों के खाते नहीं खुले हैं। पोस्ट ऑफिस भी मजदूरी के पैसे का पूरा भुगतान नहीं कर रहा है। कानून के मुताबिक लोगों को काम भी नहीं मिल रहा है। डिण्डोरी जिले में 152 से अधिक बैगा आदिवासियों ने सरकार के खिलाफ मोर्चा खोला हुआ है। अब देखना यह है कि नौकरशाहों के कारण राष्ट्रीय स्तर पर बदनामी झेल रही प्रदेश सरकार क्या कदम उठाती है।

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