bhedaghat

bhedaghat
भेड़ाघाट

Friday, August 20, 2010

कॉमनवेल्थ गेम्स महाशक्ति बनने का मौका

कॉमनवेल्थ गेम्स भारतीयों के लिए न केवल खेल हैं बल्कि यह हमारी सभ्यता, संस्कृति, समृद्धि, सांस्कृतिक विरासत और शक्ति दिखाने का मौका है। दुनिया के तीसरे सबसे बड़े खेल मेले में दिल्ली में 5 हजार खिलाड़ी और 85 देशों के लाखों दर्शक जुटेंगे। इस आयोजन में लगभग 40 हजार करोड़ खर्च किए जाएंगे। इस आयोजन हेतु एक खेल ग्राम 8 अंतर्राष्ट्रीय स्टेडियम, 25 अंडर ब्रिज और ओव्हर ब्रिज, भूमिगत पार्किंग, मेट्रो लाइने और चमचमाता हुआ अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा दुनिया भर से आए खिलाडिय़ों और दर्शकों के लिए तैयार है। जबसे हमे 19वें कॉमनवेल्थ गेम्स आयोजित करने का अधिकार मिला है इसका सफल आयोजन करना हमारा धर्म भी बन गया है। गेम्स की तैयारियों को लेकर मचे बवाल पर हमें तनिक भी भ्रमित होने की जरूरत नहीं हैं क्योकि यह हमारी संस्कृति है कि हम हर काम आखरी क्षणों में करते हैं, चाहे शादी हो या कुछ और...
विश्व की महाशक्ति होने का स्वप्न साकार करने में लगे देश के सपने कम होने के पहले ही एक के बाद एक किक झेल रहे हैं। एक सपना चूर-चूर होता है, फिर उसे समेटने के क्रम में हम पाते हैं कि सपने के अंदर भी एक सपना है। परत-दर-परत, स्वप्न और दुस्वप्न के बीच हकीकत भी सपने सी लगती है। देश के मुकुट में आग लगी है। कश्मीर की अशांति सरकारी तंत्र को झकझोर कर जगा रही है, पर सरकार इसे दु:स्वप्न मानकर फिर सोने जा रही है। उभरती महाशक्ति की बेबसी बुरा सपना है या हकीकत? उत्तरपूर्व में मणिपुर की बेबसी के दो महीने हो जाने पर हम जागे और बीस दिन में फिर कहीं खो गए।
छत्तीसगढ़ में नक्सली बार-बार हमारे सुरक्षा बलों पर घातक चोट करते हैं। हर हमले के बाद बहस, सख्त कार्रवाई, बातचीत जैसे शब्दों के जाल बुने जाते हैं और उसी जाल में अपने आप को फांस सरकारें सपने में समाधान ढूंढ़ती हैं। दुनिया की किसी महाशक्ति की छाती पर लाल सलाम का झंडा ऐसे नहीं फहरता। राष्ट्रमंडल खेलों के बहाने देश की राजधानी को चमचमाने वाले सपने आज दिल्ली की खुदी सड़कों में दफन हो रहे हैं। कुछ सपने स्टेडियम की दरकीं छतों से बूंद-बूंद पानी रिस रहे हैं। भ्रष्टाचार का ऐसा भौड़ा नृत्य पहली बार नहीं हुआ। इन खेलों को देश की मर्यादा और गर्व के साथ जोड़कर सारी दुनिया के सामने हम सच में नंगे हो गए या एक बुरा सपना है। भ्रष्टाचार सूचकांक में हम आज भी 84वें नंबर पर हैं। इस आयोजन की कमान अफसरों और बाबूओं के एक ऐसे लवाज के हाथ में हो जिसकी भूख कभी शांत नहीं होती। हमारे देश में भ्रष्टाचार का मतलब करोड़ो का ठेका हासिल कर लेना ही नहीं है उस 500 रूपए की बख्शीश से भी है जो टै्रफिक सिगनल तोडऩे पर पुलिस वाले को देना होता है। कॉमनवेल्थ की तुलना एक और खेल सर्कस आईपीएल से करें तो अजीबों गरीब समानताएं नजर आती हैं। कॉमनवेल्थ खेलों में भारत सरकार की कमजोर कड़ी उजागर हुई है। आईपीएल में ललित मोदी के माथे ठीकरा फूटा था , जबकि बोर्ड ऑफ गर्वनिंग कॉउंसिल के दूसरे सदस्य बच निकले थे और कॉमनवेल्थ खेलों मे केवल कलमाड़ी को निशाना बनाया। जबकि आयोजन से जुड़े हर महकमे ने मुनाफा कमाया है। इसलीए कॉमनवेल्थ कहा गया है। (यानी की संपत्ति का साझा बटवारा)
भारत के आठ राज्य अफ्रीका के 26 सबसे गरीब देशों से भी गरीब हैं। यह हकीकत है तो फिर आर्थिक महाशक्ति का दंभ सपना है। गरीबी रेखा से ऊपर वालों की रसोई सूख रही है, नीचे वालों के साथ अब प्रणब मुखर्जी का हाथ नहीं। चुनाव दूर हैं, सो हकीकत से हाथ मिलाइए। सपने आखिरी सालों में दिखाए जाएंगे।
सुरेश कलमाडी और उनकी टीम चाहे तो उजागर हुई राष्ट्रीय शर्म के लिए अत्यधिक बारिश को कोस सकती है। अगर बारिश नहीं होती और राष्ट्रमंडल खेलों के लिए तैयार हो रहे स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स की छतें इस तरह नहीं टपकतीं या आधे-अधूरे स्टेडियमों में पानी नहीं भरता तो नई दिल्ली में इस आयोजन से जुड़े अफसरों और बाबुओं में बड़े से बड़े भ्रष्टाचार को भी बिना डकार लिए हजम कर जाने की क्षमता है। पता ही नहीं चल पाता कि राष्ट्रीय खेल कब चालू हुए और कब खत्म हो गए। हमें आज पता नहीं है कि 1982 में एशियाड कैसे सम्पन्न हो गए थे। कल्पना ही की जा सकती है कि अगर भारत को ओलंपिक खेलों की मेजबानी करने का अवसर मिल जाए तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हासिल हो सकने वाले कलंक के टीके का आकार कितना बड़ा होगा? कल्पना की जा सकती है। भारत में खेल संगठनों पर राजनीतिक पतंगबाजी करने वालों का कब्जा है। इनमें ज्यादातर वे लोग हैं, जिन्हें चुनावी रैलियों में पैसे बांटकर भीड़ जमा करने, मिलावटी तेल में बनाई गई पूड़ी और सब्जी के पैकेट बंटवाने और माननीय अतिथियों के स्वागत में छोटे-छोटे स्कूली बच्चों को चिलचिलाती धूप में घंटों खड़े रखने की आदत है।
इसीलिए जब आरोप लगते हैं कि राष्ट्रमंडल खेलों की मेजबानी हासिल करने के लिए भी रुपए बांटे गए थे, तो मुंह फाड़कर आश्चर्य व्यक्त नहीं किया जा सकता। हम सब-कुछ करने में समर्थ हैं। पर हकीकत यह भी है कि पैसे बांटकर पदक नहीं हासिल किये जा सकते। हैरानी इस बात की है कि भ्रष्टाचार, लालफीताशाही, लेटलतीफी और खेलों की तैयारियों के नाम पर विदेशों में भारत की बदनामी के झंडे लहराने का पूरा काम सत्ता और विपक्ष की नाक के ठीक नीचे भारत की राजधानी नई दिल्ली में हुआ है।
अब जबकि पूरे आयोजन के औपचारिक आयोजन को बहुत कम समय बचा है, संसद से लेकर सड़क तक सभी लोग अपनी-अपनी बैटन लेकर दौड़ लगा रहे हैं। महारानी एलिजाबेथ ने किसी जमाने में ब्रिटेन के गुलाम रहे भारत की जनता को यह घोषणा कर पहले ही ऐलान कर दिया था कि वे राष्ट्रमंडल खेलों का उद्घाटन करने दिल्ली नहीं आएंगी। देश, सुरेश कलमाडी को नहीं जानता-पहचानता। कलमाडी की राजनीतिक रूप से भी कभी कोई राष्ट्रीय हैसियत नहीं रही। देश और दुनिया प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी और राहुल गांधी को जानती है। 1982 में देश में हुए ऐशियाड खेल के समय तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी और स्व. राजीव गांधी पर कोई उंगली नहीं उठी। राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन समिति के टी .एस. दरबारी, संजय महिन्द्रू और जयचंद्रन या अनिल खन्ना जैसे कुछ व्यक्तियों के नाम हैं, जिन्हें निलंबित कर देने या उनके पद छोड़ देने से ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा। बहस का मुद्दा यह होना चाहिए कि व्यवस्था में इतनी खोट कैसे खड़ी हो जाती है कि संगठित भ्रष्टाचार देश की प्रतिष्ठा और सम्मान को लील जाने की हिमाकत कर लेता है और सब-कुछ रातों-रात नहीं होता, सारे चौकीदार महीनों तक सोए हुए या ऊंघते रह जाते हैं। आखिरकार सारी तैयारियों को लेकर कैग की रिपोर्ट ने तो सालभर पहले ही चेता दिया था।
डॉ. मनमोहन सिंह ने ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन के साथ संबोधित संयुक्त पत्रकार सम्मेलन में दावा किया था कि वे 'कैबिनेट सचिव के साथ समूची स्थिति की समीक्षा कर चुके हैं और सभी आवश्यक तैयारियां ठीक से चल रही हैं और ठीक से हो भी जाएंगी।Ó इस बात में कोई शक नहीं कि एक कद्दावर राष्ट्र के रूप में हम मौजूदा दौर से बाहर भी निकल जाएंगे और अपनी गरिमा के करीब पहुंचते हुए राष्ट्रमंडल खेलों की अपनी हैसियत से बाहर जाकर मेजबानी भी निभा लेंगे। पर खेलों के बहाने हमारी क्षमताओं के जो कमिया उजागर हुई हैं, वे तो अब इतिहास में दर्ज हो चुकी हैं। हम उनका क्या करेंगे? कलमाडी या उनके जैसे और भी कई लोगों का कुछ नहीं बिगडऩे वाला है। और फिर क्या पता कि पूरे खेल में इन लोगों का भी केवल बैटन के रूप में इस्तेमाल हुआ हो!
कॉमनवेल्थ गेम्स को शुरू होने में लगभग 50 दिन का वक्त रह गया है। लेकिन आज हर आम-ओ-खास की जुबान पर यही सवाल है क्या इन खेलों के आयोजन कामयाब होंगे? क्या हम दुनिया को दिखा पाएंगे कि 1982 के एशियाड के बाद हम कितना आगे बढ़ चुके हैं? इन खेलों के आयोजन को लेकर दो मत हो सकते हैं। लेकिन अब खेल होंगे, यह तय हो चुका है। ऐसे में हम सबको मिलकर दुआ करनी चाहिए कि कॉमनवेल्थ गेम्स के आयोजन सफल हों। यह एक अच्छा मौका हो सकता है कि हम दुनिया को दिखा पाएं कि बीते 28 सालों में (1982 के एशियाड से) गंगा-यमुना में बहुत पानी बह चुका है। देश ने आर्थिक तरक्की कर ली है। लेकिन इन उम्मीदों और दुआओं के बीच आशंकाओं को बादल छंट नहीं रहे हैं। हमारे सामने चुनौती 3 अक्टूबर से पहले खेलों की तैयारियां पूरी करने की है।
हम जैसे-तैसे तैयारियों को अंतिम रूप देने में लगे हुए हैं। लेकिन क्या हम इन खेलों का सफल आयोजन कर पाएंगे? क्या इन खेलों से देश में खेल और खिलाड़ी का कोई भला हो सकेगा? चूंकि भारत ने इन खेलों की मेजबानी के वक्त लगाई गई बोली में यह कहा था कि अगर ये खेल भारत में होते हैं तो देश में युवाओं को खेलों की तरफ प्रेरित करने में मदद मिलेगी। अब सवाल यह उठता है कि हजारों करोड़ रुपये खर्चकर हमने तामझाम तो तैयार कर लिया है, लेकिन क्या कॉमनवेल्थ गेम्स के आयोजन से सिर्फ दिल्ली चमकेगी और आयोजन से जुड़ी कंपनियों, ठेकेदारों को फायदा पहुंचाकर यह निपट जाएगा। या फिर, वाकई 14 अक्टूबर को हम पदक तालिका में कहीं 'नजरÓ आएंगे। इन सवालों में ही कॉमनवेल्थ खेलों की कामयाबी या नाकामी के जवाब छुपे हुए हैं।
केन्द्रीय शहरी विकास मंत्नी एस जयपाल रेड्डी भी कह चुके हैं कि अक्टूबर में हो रहे राष्ट्रमंडल खेलों की सफलता भारत को वैश्विक मंच पर स्थापित कर देगी और इतना ही नहीं उन्हें पूरा विश्वास है कि अब तक के सर्वश्रेष्ठ राष्ट्रमंडल खेलों का आयोजन किया जाएगा। यहां यह बताना उचित होगा कि श्री रेड्डी समन्वय और विकास कार्यों के देखने वाले मंत्रियों के समूह में प्रमुख भी हैं। खेल आयोजन समिति के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी इतना सब कुछ होने के बाद भी यह दिलासा देने में बाज नहीं आते हैं कि हम सभी खेल परिसरों को समय पर पूरा कर लेंगे। सरकार हमारे साथ है और हम अभूतपूर्व खेलों का आयोजन करेंगे। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह स्वयं सफल खेलों के संचालन के लिए प्रतिबद्ध हैं।
कॉमनवेल्थ खेलों की महंगी मेजबानी के पीछे इरादा यह था कि देश की आर्थिक क्षमता व दक्षता को दुनिया के सामने पेश किया जा सके और देश में खेल संस्कृति के विकास का माहौल पैदा किया जा सके। पहले केंद्रीय सतर्कता आयोग ने जिन 16 परियोजनाओं की जांच की, उन सभी के प्रमाणपत्र या तो जाली थे या संदिग्ध। सीबीआई इनमें से एक मामले में एफआईआर भी दर्ज कर चुकी है।
उधर लंदन में क्वींस बैटन लाने के दौरान जिस कंपनी से कार किराये पर ली गईं, उसे नियम-विरुद्ध भारी-भरकम धनराशि अदा की गई। इसका खुलासा ब्रिटिश सरकार के माध्यम से हुआ जो अलग से इसकी जांच कर रही है। आयोजन समिति के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी ने अपनी सफाई में दस्तावेज जारी किए कि लंदन स्थित भारतीय उच्चयोग ने कंपनी के नाम की सिफारिश की थी, लेकिन अगले ही दिन ईमेल में हेर-फेर की बात सामने आई। एक अन्य रिपोर्ट बता रही है कि ट्रेड मिल जैसी कई चीजें उनके खरीद मूल्य से ज्यादा धनराशि चुकाकर किराये पर ली गईं।
इन रिपोर्टो से कॉमनवेल्थ खेलों के आयोजन का उद्देश्य उनके शुभारंभ से पहले ही परास्त होता लग रहा है। आयोजन से देश की प्रतिष्ठा में चार चांद लगना तो दूर, देश की प्रतिष्ठा के साथ मजाक होता लग रहा है। खेल संघों और आयोजन समिति में सभी पार्टियों के लोग हैं इसलिए हमारा समूचा राजनीतिक प्रतिष्ठान जिम्मेदारी से बरी नहीं हो सकता। अगले कुछ दिनों में खेलों के वही कर्ता-धर्ता बैठकों का नाटक करते देखे जाएंगे जो आयोजन को इस दयनीय मुकाम तक लाने के लिए जिम्मेदार हैं और जिनकी विश्वसनीयता नहीं रह गई है। सौभाग्य से देश की कमान एक ऐसे प्रधानमंत्री के हाथ में है, जिनकी शुचिता व ईमानदारी असंदिग्ध है। समय आ गया है, जब डॉ मनमोहन सिंह को हस्तक्षेप करके यह सुनिश्चित करना चाहिए कि कॉमनवेल्थ खेल इस तरह आयोजित किए जा सकें, जिससे देश की प्रतिष्ठा की रक्षा हो सके और साथ ही गड़बड़ी के लिए जिम्मेदार लोगों को सजा मिल सके।
लेकिन कॉमनवेल्थ अंधेर नगरी का खेल बनकर रह गया है जिसमें सभी अपनी-अपनी पतंगे उड़ाना चाहते हैं। जहां कलमाड़ी के नेतृत्व में आयोजकों को तिजोरियां भरने का सुनहरा मौका मिल गया है, तो दूसरी ओर मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार को मंहगाई बढ़ाने का मौका मिला हुआ है। इन सबसे अगर कोई परेशान है तो वह हमारे देश की भोली-भाली जनता। देश की सभी राजनीतिक पार्टियों और मुखर विपक्षी लोगों को भी राष्ट्रमंडल और महंगाई के बहाने नमक-मसाला लगा मुद्दा मिल गया है। अब जाहिर है कि सभी अपनी-अपनी पतंगे इस तेज हवा में उड़ाना चाहते हैं। गरीबों के दु:ख में तो कॉमनवेल्थ ने आग में घी का काम किया है। किसी ने सच ही कहा है अंधेर नगरी चौपट राजा टका शेर भाजी टका शेर खाजा दीपक के बुझने से पहले लौ तेज हो जाती है उसी तरह इस हवा के बंद होने की उल्टी गिनती भी शुरू हो चुकी है। राजनीतिक दलों, आम जनता और देश-विदेश की मीडिया में कॉमनवेल्थ में हो रहे व्यापक पैमाने पर बड़े-बड़े घोटालों को लेकर हर तरह का हो-हल्ला मचा हुआ है। सभी एक-दूसरे के ऊपर आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे हैं, जो अब अपने चरम पर पहुंच चुका है। दिल्ली सरकार तो अनुमान लगाने में फेल हो गई जिसका फल आम जनता को महंगाई के रूप में मिला। अगर कॉमनवेल्थ गेम्स में भारत कि मटिया-पलीद हुई तो इसकी सारी जिम्मेदारी सरकार की होगी। हमें अपनी मजबूती देखने के बाद ही ओखली में सिर देना चाहिए था। तैयारियों के खर्चे को लेकर सही अनुमान लगा होता तो शायद आम जनता को इतनी महंगाई ना झेलनी पड़ती। आंकड़ों के मुताबिक हम अभी उस लायक नहीं हुए हैं कि ऐसे आयोजन का जिम्मा ले सकें। ना जिम्मा लेते ना ही इसकी आड़ में बढ़ी महंगाई कि मार झेलते। सच तो ये है कि विकासशील देशों के लिए इतने बड़े आयोजन कभी भी फायदेमंद साबित नहीं हो सकते।
भ्रष्टाचार और अधूरी तैयारियों के लिए चौतरफा आलोचना झेल रहे दिल्ली राष्ट्रमंडल खेलों के बचाव में उतरते हुए ऑस्ट्रेलियाई राष्ट्रमंडल खेल संघ के अध्यक्ष पैरी क्रासव्हाइट ने कहा कि भारत में ये खेल अब राजनीतिक द्वंद्व में बदल गए हैं और लोग भ्रष्टाचार तथा निमार्ण कार्यो में देरी के आरोप प्रत्यारोप लगा कर अपना अपना हिसाब बराबर करने का प्रयास कर रहे हैं। एक अखबार के हवाले में क्रासव्हाइट ने कहा कि मुझे ये आरोप राजनीतिक लग रहे हैं। उन्होंने कहा कि ऐसा लगता है कि सरकार और अन्य लोग एक दूसरे के बारे में आरोप लगा रहे हैं। कॉमनवेल्थ खेलों में आ रही गड़बडिय़ों का मामला प्रधानमंत्री के दफ्तर तक पहुंच गया इतना ही नहीं कांग्रेस की कोर कमेटी की बैठक में भी कॉमनवेल्थ खेलों के बारे में चर्चा हुई थी। कॉमनवेल्थ खेलों की छाप वाला सामान बनाने के लिए जिस कंपनी को ठेका दिया गया था, उसने ये सामान या मर्चेंडाइज बनाने से मना कर दिया है। बहरहाल हो रहे कॉमनवेल्थ गेम देश के सामने चुनौती भी है और अपनी शक्ती का विश्वपटल पर प्रर्दशित करने का मौका भी। अब यह खेल सही तरीके से समाप्त होने के बाद ही पता चल पाएगा कि हमारी मेजबानी कितनी प्रभावशाली साबित हुई है।

No comments:

Post a Comment